संवर्त का मरुत्त को सुवर्ण की प्राप्ति के लिए महादेव की नाममयी स्तुति का उपदेश

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अश्वमेधिक पर्व के अंतर्गत अध्याय 8 में संवर्त का मरुत्त को सुवर्ण की प्राप्ति के लिए महादेव की नाममयी स्तुति का उपदेश का वर्णन हुआ है।[1]

संवर्त का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! संवर्त ने कहा- राजन! हिमालय के पृष्ठभाग में मुञ्जवान नामक एक पर्वत है, जहाँ उमावल्लभ भगवान शंकर सदा तपस्या किया करते हैं। वहाँ वनस्पतियों के मूलभाग में दुर्गम शिखरों पर तथा गिरिराज की गुफाओं में नाना प्रकार के भूतगणों से घिरे हुए महातेजस्वी त्रिशूलधारी भगवान महेश्वर उमादेवी के साथ इच्छानुसार सुखपूर्वक सदा निवास करते हैं। उस पर्वत पर रुद्रगण, साध्यगण, विश्वेदेवगण, वसुगण, यमराज, वरुण, अनुचरों सहित कुबे, भूत, पिशाच, अश्विनी कुमार, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष, देवर्षि, आदित्यगण, मरूद्गण तथा यातुधानगण अनेक रूपधारी उमावल्लभ परमात्मा शिव की सब प्रकार से उसासना करते हैं। पृथ्वीनाथ! यहाँ विकराल आकार और विकृत वेष वाले कुबेर -सेवक यक्ष भाँति-भाँति की क्रीडाएं करते हैं और उनके साथ भगवान शिव आनन्दपूर्वक रहते हैं। उनका श्रीविग्रह प्रभातकाल के सूर्य की भाँति तेज से जाज्वल्यमान दिखायी देता है। संसार कोई भी प्राकृत प्राणी अपने मांसमय नेत्रों से न के रूप या आकार को कभी नहीं देख सकते। वहाँ न अधिक गर्मी पड़ती है न विशेष ठंडक, न वायु का प्रकोप होता है नं सूर्य के प्रचण्ड ताप का। नरेश्वर! उस पर्वत पर न तो भूख सताती है न प्यास, न बुढ़ापा आता है न मृत्यु। वहाँ दूसरा कोई भय भी नहीं प्राप्त होता है।

संवर्त का मरुत्त को सुवर्ण की प्राप्ति के लिए महादेव की नाममयी स्तुति का उपदेश का वर्णन

विजयीवीरों में श्रेष्ठ नरेश! उस पर्वत को चारों ओर सूर्य की किणों के समान प्रकाशमान सूवर्ण की खाने है। राजन! अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित कुबेर के अनुचर अपने स्वामी महात्मा कुबेर का प्रिय करने की इच्छा से उन खानों की रक्षा करते हैं। राजर्षे! वहाँ जाकर तुम परम शक्तिभाव से युक्त हो महायोगेश्वर शिवा को प्रणाम करों। जगत्स्रष्टा भगवान शंकर को नमस्कार करके समस्त विद्याओं को धारण करने वाले उन महादेव जी की तुम इन निम्नांकित नामों द्वारा स्तुति करो। ‘भगवन! आप रुद्र (दु:ख के कारण को दूर करने वाले), शितिकण्ठ (गले में नील चिह्न धारण करने वाले), पुरुष (अन्तर्यामी), सुवर्चा (अतयन्त तेजस्वी), कपर्दी (जटा-जूटधारी), कराल (भयंकर रूपवाले), हर्यक्ष (हरे नेत्रों वाले), वरद (भक्तों को अभीष्ट वर प्रदान करने वाले), त्र्यक्ष (त्रिनेत्रधारी), पूषा के दाँत उखाड़ने वाले, वामन, शिव याम्य (यमराज के गणस्वरूप), अव्यक्तरूप, सद्वृत्त (सदाचारी), शंकर, क्षेम्य (कलयाणकारी), हरिकेश (भूरे केशों वाले), स्थाणु (स्थिर), पुरुष, हरिनेत्र, मुण्ड, क्रुद्ध, उत्तरण (संसार-सागर से पार उतरने वाले), भास्कर (सूर्यरूप), सुतीर्थ (पवित्र तीर्थरूप), देवदेव, रंहस (वेगवान्), उष्णीषी (सिर पर पगड़ी धारण करने वाले), सुवक्त्र (सुन्दर मुख वाले), सहस्राक्ष (हजारों नेत्रों वाले), मीढवान (कामपूरक), गिरिश (पर्वत पर शयन करने वाले), प्रशान्त, यति (संयती), चीरवासा (चीरवस्त्र धारण करने वाले), विल्वदण्ड (बेल का डंडा धारण करने वाले), सिद्ध, सर्वदण्डधर (सब को दण्ड देने वाले), मृगव्याध (आर्द्रा-नक्षत्र स्वरूप), महान्, धन्वी (पिनाक नामक धनुष धारण करने वाले), भव (संसार की उत्पत्ति करने वाले), वर (श्रेष्ठ), सोमवक्त्र (चन्द्रमा के समान मुख वाले), सिद्धमन्त्र (जिन्होंने सभी मन्त्र सिद्ध कर लिया है ऐसे), चक्षुष (नेत्ररूप), हिरण्यबाहु (सुवर्ण के समान सुन्दर भुजाओं वाले), उग्र (भयंकर), दिशाओं के पति, लेलिहान (अग्रि रूप से अपनी जिह्वाओं के द्वारा हविष्य का आस्वादन करने वाले), गोष्ठ (वाणी के निवास स्थान), सिद्धमन्त्र, वृष्णि (कामनाओं की वृष्टि करने वाले), पशुपति, भूतपित, बृष (धर्मस्वरूप), मातृभक्त, सेनानी (कार्तिकेय रूप), मध्यम, स्त्रुवहस्त (हाथ में स्त्रुवा ग्रहण करने वाले ऋत्विज्रूप), पति (सबका पालन करने वाले), धन्वी, भार्गव, अज (जन्म रहित), कृष्ण नेत्र, विरूपाक्ष, तीक्ष्णदंष्ट्र, तीक्षण, वैश्वानर मुख (अग्रिरूप मुखवाले), महाद्युति, अनंग (निराकार), सर्व, विशाम्पति (सबके स्वामी), विलोहित (रक्तवर्ण), दीप्त (तेजस्वी), दीप्ताक्ष (देदीप्यमान नेत्रों वाले), महौजा (महाबली), वसुरेता (हिरण्यवीर्य अग्रिरूप), सुवपुष (सुन्दर शरीर वाले), पृथु (स्थूल), कृत्तिवासा (मृगचर्म धारण करने वाले), कपालमाली (मुण्डमाला धारण करने वाले), सुवर्ण मुकुट, महादेव, कृष्ण (सच्चिदानन्द स्वरूप), त्र्यम्बक (त्रिनेधारी), अनघ (निष्पाप), क्रोधन (दुष्टों पर क्रोध करने वाले), अनृशंस (कोमल स्वभाव वाले), मृदु, बाहुशाली, दण्डी, तेज तप करने वाले, कोमल कर्म करने वाले, सहस्रशिरा (हजारों मस्त वाले), सहस्र चरण, स्वधास्वरूप, बहुरूप और दंष्ट्री नाम धारण करने वाले हैं। आपको मेरा प्रणाम है।[1]

इस प्रकार उन पिनाकधारी, महादेव, महायोगी, अविनाशी, हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले, वरदायक, त्र्यम्बक, भुवनेश्वर, त्रिपुरासुर को मारने वाले, त्रिनेत्रधारी, त्रिभुवन के स्वामी, महान बलवान, सब जीवों की उत्पत्ति के कारण, सबको धारण करने वाले, पृथ्वी का भार सँभाल ने वाले, जगत के शासक, कल्याणकारी, सर्वरूप, शिव, विश्वेश्वर, जगत को उत्पन्न करने वाले, पार्वती के पति, पशुओं के पालक, विश्व रूप, महेश्वर, विरूपाक्ष, दस भुजाधारी, अपनी ध्वजा में दिव्य वृषभ का चिह्न धारण करने वाले, उग्र, स्थाणु, शिव, रुद्र, शर्व, गौरीश, ईश्वर, शितिकण्ठ , अजन्मा, शुक्र, पृथु, पृथुहर, वर, विश्वरूप, विरूपाक्ष, बहुरूप, उमापति, कामदेव को भस्म करने वाले, हर, चतुर्मुख एवं शरणागत वत्सल महादेव जी को सिर से प्रणाम करके उनके शरणापन्न हो जाना। (और इस प्रकार स्तुति करना)- जो अपने तेजस्वी श्री विग्रह से प्रकाशित हो रहे हैं, दिव्य आभूष्णों से विभूषित हैं, आदि अन्त से रहित, अजन्मा, शम्भु, सर्वव्यापी, ईश्वर, त्रिगुण रहित, उद्वेगशून्य, निर्मल, ओज एवं तेज की निधि एवं सबके पाप और दु:ख को हर लेने वाले हैं, उन भगवान शंकर को हाथ जोड़ प्रणाम करके मैं उनकी शरण में जाता हूँ। जो सम्माननीय, निश्चल, नित्य, कारण रहित, निर्लेप और अध्यात्मतत्त्व के ज्ञाता हैं, उन भगवान शिव के निकट पहुँचकर मैं बारंबार उन्हीं की शरण में जाता हूँ। अध्यात्मतत्त्व का विचार करने वाले ज्ञानी पुरुष मोक्षतत्त्व में जिनकी स्थिति मानते हैं तथा तत्त्व मार्ग में परिनिष्ठित योगीजन अविनाशी कैवल्य पद को जिनका स्वरूप समझते हैं और आसक्ति शून्य समदर्शी महात्मा जिन्हें सर्वत्र समान रूप से स्थित समझते हैं, उन योनि रहित जगत्कारणभूत निर्गुण परमात्मा शिव की मैं शरण लेता हूँ। जिन्होंने सत्यलोक के ऊपर स्थित होकर भू आदि सात सनातन लोकों की सृष्टि की है, उन स्थागुणरूप सनातन शिव की मैं शरण लेता हूँ। जो भक्तों के लिये सुलभ और दूर (विमुख) रहने वाले लोगों के लिये दुर्भभ हैं, जो सबके निकट और प्रकृति से परे विराजमान हैं, उन सर्वलोकव्यापी महादेव शिव को मैं नमस्कार करता और उनकी शरण लेता हूँ। पृथ्वीनाथ! इस प्रकार वेगशाली महात्मा महादेव जी को नमस्कार करके तुम वह सुवर्ण-राशि प्राप्त कर लोगे।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-26
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 27-38

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