परशुराम के द्वारा क्षत्रिय कुल का संहार

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 29 में परशुराम के द्वारा क्षत्रिय कुल के संहार का वर्णन हुआ है।[1]

ब्राह्मण द्वारा कार्तवीर्य और समुद्र के संवाद का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ब्राह्मण ने कहा- भामिनि! इस विषय में भी कार्तवीर्य और समुद्र के संवाद रूप का एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। पूर्वकाल में कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से प्रसिद्ध एक राजा था, जिसकी एक हजार भजाएँ थीं। उसने केवल धनुष-बाण की सहायता से समुद्र पर्यन्त पृथ्वी को अपने अधिकार में कर लिया था। सुना जाता है, एक दिन राजा कार्तवीर्य समुद्र के किनारे विचर रहा था। वहाँ उसने अपने बल के घमण्ड में आकर सैकड़ों बाणों की वर्षा से समुद्र को आच्छादित कर दिया। तब समुद्र ने प्रकट होकर उसके आगे मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर कहा- ‘वीरवर! राजसिंह! मुझ पर बाणों की वर्षा न करो। बोलो, तुम्हारी किस आज्ञा का पालन करूँ? शक्तिशाली नरेश्वर! तुम्हारे छोड़े हुए इन महान बाणों से मेरे अन्दर रहने वाले प्राणियों की हत्या हो रही है। उनहें अभय दान करो’। कार्तवीर्य अर्जुन बोला- समुद्र! यदि कहीं मेरे समान धनुर्धर वीर मौजूद हो, जो युद्ध में मेरा मुकाबला कर सके तो उसका पता बता दो। फिर मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊँगा। समुद्र ने कहा- राजन! यदि तुमने महर्षि जमदग्नि का नाम सुना हो तो उन्हीं के आश्रम पर चले जाओ। उनके पुत्र परशुराम जी तुम्हारा अच्छी तरह सत्कार कर सकते हैँ। ब्राह्मण ने कहा- कमल के समान नेत्रों वाली देवी! तदनन्तर राज कार्तवीर्य बड़े क्रोध में भरकर महर्षि जमदग्नि के आश्रम पर परशुराम जी के पास जा पहुँचा और अपने भाई-बन्धुओं के साथ उनके प्रतिकूल बर्ताव करने लगा। उसने अपने अपराधों से महात्मा परशुराम जी को उद्विग्न कर दिया। फिर तो शत्रु सेना को भस्म करने वाला अमित तेजस्वी परशुराम जी का तेज प्रज्वलित हो उठा। उन्होंने अपना फरसा उठाया और हजार भुजाओं वाले उस राजा को अनेक शाखाओं से युक्त वृक्ष की भाँति सहसा काट डाला। उसे मरकर जमीन पर पड़ा देख उसके सभी बन्धु-बान्धव एकत्र हो गये तथा हाथों में तलवार और शक्तियाँ लेकर परशुरामजी पर चारों ओर से टूट पड़े। इधर परशुराम जी भी धनुष लेकर तुरंत रथ पर सवार हो गये और बाणों की वर्षा करते हुए राजा की सेना का संहार करन लगे। उस समय बहुत से क्षत्रिय पराशुराम जी के भय से पीड़ित हो सिंह के सताये हुए मृगों की भाँति पर्वतों की गुफाओं में घुस गये।

परशुराम के द्वारा क्षत्रिय कुल का संहार

उन्होंने उनके डर से अपने क्षत्रियोचित कर्मों का भी त्याग कर दिया। बहुत दिनों तक ब्राह्मणों दर्शन न कर सकने के कारण वे धीरे-धीरे अपने कर्म भूलकर शूद्र हो गये। इस प्रकार द्रविड, आभीर, पुण्ड्र और शबरों के सहवास में रहकर वे क्षत्रिय होते हुए भी धर्म त्याग के कारण शूद्र की अवस्था में पहुँच गये। तत्पश्चात् क्षत्रिय वीरों के मारे जाने पर ब्राह्मणों ने उनकी स्त्रियों से नियोग की विधि के अनुसार पुत्र उत्पन्न किये, किंतु उन्हें भी बड़े होने पर परशुराम जी ने फरसे से काट डाला। इस प्रकार एक-एक करके जब इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार हो गया, तब परशुराम जी को दिव्य आकाशवाणी ने मधुर स्वर में सब लोगों के सुनते हुए यह कहा- ‘बेटा! परशुराम! इस हत्या के काम से निवृत्त हो जाओ। परशुुराम! भला बारंबार इन बेचारे क्षत्रियों के प्राण लेने में तुम्हें कौन सा लाभ दिखलायी देतो है?’[1] उस समय महात्मा परशुराम जी को उनके पितामह ऋचीक आदि ने भी इसी प्रकार समझाते हुए कहा- ‘महाभाग! यह काम छोड़ दो, क्षत्रियों को न मारो’। पिता के वध को सहन न करते हुए परशुराम जी ने उन ऋषियों से इस प्रकार कहा- ‘आप लोगों को मुझे इस काम से निवारण नहीं करना चाहिये’। पितर बोल- विजय पाने वालों में श्रेष्ठ परशुराम! बेचारे क्षत्रियों को मारना तुम्हारे योग्य नहीं है, क्योंकि तुम ब्राह्मण हो, अत: तुम्हारे हाथ से राजाओं का वध होना उचित नहीं है।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-19
  2. महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 29 श्लोक 20-22

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