चारों वर्णों के कर्म और उनके फलों का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में चारों वर्णों के कर्म और उनके फलों का वर्णन हुआ है।[1]

श्रीकृष्‍ण द्बारा चारों वर्णों के कर्म का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्‍ण ने सम्‍पूर्ण जगत को अपने से उत्‍पन्न बतलाकर धर्मनन्‍दन युधिष्‍ठिर से पवित्र धर्मों ‘पाण्‍डुनन्‍दन! मेरे द्वारा कहे हुए धर्मशास्‍त्र का पुण्‍यमय, पापनाशक, पवित्र और महान फल यथार्थ– रूप से सुनो। ‘युधिष्‍ठिर! जो मनुष्‍य पवित्र और एकाग्रचित्त होकर तपस्या में संलग्‍न हो स्‍वर्ग, यश और आयु प्रदान करने वाले जानने योग्‍य धर्म का श्रवण करता है, उस श्रद्धालु पुरुष के– विशेषत: मेरे भक्‍त के पूर्व संचित जितने पाप होते हैं, वे सब तत्‍काल नष्‍ट हो जाते हैं।’

वैशम्‍पायन जी कहते हैं– राजन! श्रीकृष्‍ण का यह परम पवित्र और सत्‍य वचन सुनकर मन– ही– मन प्रसन्‍न हो धर्म के अद्भुत रहस्‍य का चिन्‍तन करते हुए सम्‍पूर्ण देवर्षि, ब्रह्मर्षि, गन्‍धर्व, अप्‍सराएं, भूत, यक्ष, ग्रह, गुहाक, सर्प, महात्‍मा बालखिल्‍यगण, तत्त्वदर्शी योगी तथा पांचों उपासना करने वाले भगवद्भक्‍त पुरुष उत्‍तम वैष्‍णव – धर्म का उपदेश सुनने तथा भगवान की बात हृदय में धारण करने के लिये अत्‍यन्‍त उत्‍कण्‍ठित होकर वहाँ आये। उनके इन्‍द्रिय और मन अत्‍यन्‍त हर्षित हो रहे थे। आने के बाद उन सबने मस्‍तक झुकाकर भगवान को प्रणाम किया। भगवान की दिव्‍य दृष्‍टि पड़ने से वे सब निष्‍पाप हो गये। उन्‍हें उपस्‍थित देखकर महाप्रतापी धर्मपुत्र युधिष्‍ठिर ने भगवान को प्रणाम करके इस प्रकार धर्म विषयक प्रश्‍न किया।

श्रीकृष्‍ण द्वारा कर्म के फलों का वर्णन

युधिष्‍ठिर ने पूछा– देवेश्‍वर! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शुद्र की पृथक–पृथक कैसी गति होती है? श्रीभगवान ने कहा– नरश्रेष्‍ठ धर्मराज! ब्राह्मणादि वर्णों के क्रम से धर्म का वर्णन सुनो। ब्राह्मण के लिये कुछ भी दुष्‍कर नहीं है। जो ब्राह्मण शिखा और यज्ञोपवीत धारण करते हैं, संध्‍योपासना करते हैं, पूर्णाहुति देते हैं, विधिवत अग्‍निहोत्र करते हैं, बलिवैश्‍वदेव और अतिथियों का पूजन करते हैं, नित्‍य स्‍वाध्‍याय में लगे रहते हैं तथा जप– यज्ञ के परायण है; जो प्रात:काल और सांयकाल होम करने के बाद ही अन्‍न ग्रहण करते हैं, शूद्र का अन्‍न नहीं खाते हैं, दम्‍भ और मिथ्‍या भाषण से दूर रहते हैं, अपनी ही स्‍त्री से प्रेम रखते हैं तथा पंच यज्ञ और अग्‍निहोत्र करते रहते हैं, जिनके सब पापों को हवन की जाने वाली तीनों अग्‍नियाँ भस्‍म कर देती हैं, वे ब्राह्मण पापरहित होकर ब्रह्मलोक को प्राप्‍त होते हैं। क्षत्रियों में भी जो राज्‍य सिंहासन पर आसीन होने के बाद अपने धर्म का पालन और प्रजा की भली-भाँति रक्षा करता है, लगान के रूप में प्रजा की आमदनी का छठा भाग लेकर सदा उतने से ही संतोष करता है, यज्ञ और दान करता रहता है, धैर्य रखता है, अपनी स्‍त्री से संतुष्‍ट रहता है, शास्‍त्र के अनुसार चलता है, तत्‍व को जानता है और प्रजा की भलाई के कार्य में संलग्‍न रहता है तथा ब्राह्मणों की इच्‍छा पूर्ण करता है, पोष्‍य वर्ग के पालन में तत्‍पर रहता है, प्रतिज्ञा को सत्‍य करके दिखाता है, सदा पवित्र रहता है एवं लोभ और दम्‍भ को त्‍याग देता है, उस क्षत्रिय को भी देवताओं द्वारा सेवित उत्‍तम गति की प्राप्‍ति होती है।[1]

जो वैश्‍य कृषि और गोपानल में लगा रहता है, धर्म का अनुसंधान किया करता है, दान, धर्म और ब्राह्मणों की सेवा में संलग्‍न रहता है तथा सत्‍यप्रतिज्ञ, नित्‍य पवित्र, लोभ और दम्‍भ से रहित, सरल, अपनी ही स्‍त्री से प्रेम रखने वाला और हिंसा– द्रोह से दूर रहने वाला है, जो कभी भी वैश्‍य धर्म का त्‍याग नहीं करता और देवता तथा ब्राह्मणों की पूजा में लगा रहता है, वह अप्‍सराओं से सम्‍मानित होकर स्‍वर्ग लोक में गमन करता है।

शुद्रों में से जो सदा तीनों वर्णों की सेवा करता और विशेषत: ब्राह्मणों की सेवा में दास की भाँति खड़ा रहता है; जो बिना मांगे ही दान देता है, सत्‍य और शौच का पालन करता है, गुरु और देवताओं की पूजा में प्रेम रखता है, पर स्‍त्री के संसर्ग से दूर रहता है, दूसरों को कष्‍ट न पहुँचाकर अपने कुटुम्‍ब का पालन करता है और सब जीवों को अभय– दान कर देता है, उस शूद्र को भी स्‍वर्ग की प्राप्‍ति होती है। इस प्रकार धर्म से बढ़कर दूसरा कोई साधन नही है। वही निष्‍काम भाव से आचरण करने पर संसार– बन्‍धन से मुक्‍ति दिलाता है। धर्म से बढ़कर पाप– नाश का और कोई उपाय नहीं है। इसलिये इस दुर्लभ मनुष्‍य- जीवन को पाकर सदा धर्म का पालन करते रहना चाहिये। धर्मानुरागी पुरुषों के लिये संसार में कोई वस्‍तु दुर्लभ नहीं है।

नरेश्‍वर! ब्रह्मा जी ने इस जगत में जिस वर्ण के लिये जैसे धर्म का विधान किया है, वह वैसे ही धर्म का भली-भाँति आचरण करके अपने पापों को नष्‍ट कर सकता है। मनुष्‍य को जातिगत कर्म हो, उसका किसी को त्‍याग नहीं करना चाहिये। वही उसके लिये धर्म होता है और उसी का निष्‍काम भाव से आचरण करने पर मनुष्‍य को सिद्धि (मुक्‍ति) प्राप्‍त हो जाती है। अपना धर्म गुण रहित होने पर भी पाप को नष्‍ट करता है। इसी प्रकार यदि मनुष्‍य के पाप की वृद्धि होती है तो वह उसके धर्म को क्षीण कर डालता है।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-4
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-5

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