युधिष्ठिर के धर्मराज्य का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अश्वमेधिक पर्व के अंतर्गत अध्याय 14 में युधिष्ठिर के धर्मराज्य का वर्णन हुआ है।[1]

युधिष्ठिर द्वारा दान

वैशम्पायन जी कहते हेैं- राजन! कुरुश्रेष्ठ! धृतराष्ट्र उन्होंने भीष्म और कर्ण आदि कुरुवंशियों के निमित्त और्ध्वदैहिक क्रिया (श्राद) में ब्राह्मणों को बड़े-बड़े दान दिये। तत्पश्चात ब्राह्मणों को बहुत सा धन देकर पाण्डवशिरोमणी युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र को आगे करके हस्तिनापुर में प्रवेश किया। धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर प्रज्ञाचक्षु पितृव्य महाराज धृतराष्ट्र सांत्वना देकर भाइयों के साथ पृथ्वी का राज्य करने लगे।[1] जैसे महाराज मनु तथा दशरथ नन्दन श्रीराम ने इस पृथ्वी का पालन किया था, उसी प्रकार भरतसिंह युधिष्ठिर भी भूमण्डल की रक्षा करने लगे। उनके राज्य में कहीं कोई अधर्म युक्त कार्य नहीं होता था। सब लोग धर्म विषयक रुचि रखते थे।[2]

युधिष्ठिर के धर्मराज्य का वर्णन

पुरुषसिंह! जैसे सत्ययुग में समस्त प्रजा धर्मपरायण रहती थी, उसी प्रकार उस समय द्वापर में भी हो गयी थी। कलियुग को समीप आया देख बुद्धिमान नृपनन्दन युधिष्ठिर ने उसको भी निवास दिया और भाइयों के साथ वे धर्म बल से अजेय होकर शोभा पाने लगे। भगवान पर्जन्यदेव उनके राज्य के प्रत्येक देश में यथेष्ठ वर्षा करते थे। सारा जगत रोग-शोक से रहित हो गया था, किसी को भी भूख-प्यास का थोड़ा सा भी कष्ट नहीं रह गया था। मनुष्यों को मानसिक व्यथा नहीं सताती थी। किसी का मन दुर्व्यसन में नहीं लगता था। ब्राह्मण आदि सभी वर्णों के लोग स्वधर्म को ही उत्कृष्ट मानकर उसमेंं लगे रहते थे। सभी मंगल युक्त थे। धर्म में सत्य की प्रधानता थी और सत्य उत्तम विषयों से युक्त होता था। धर्म के आसन पर बैठे हुए युधिष्ठिर सत्पुरुषों, स्त्रियों, बालकों, रोगियों, बड़े-बूढ़ों तथा पूर्वनिर्मित सम्पूर्ण वर्णाश्रम-धर्मों की रक्षा के लिये सदा उद्यत रहते थे। वे जीविका हीन मनुष्यों को जीविका प्रदान करते, यज्ञ के लिये धन दिलाते तथा अन्यान्य उपायों द्वारा प्रजा की रक्षा करते थे। अत: इहलोक का सारा सुख तो सबको प्राप्त ही था, परलोक का भी भय नहीं रह गया था। उनके शासन काल में सारा जगत स्वर्गलोक के समान सुखद हो गया था। यहाँ का एकाग्र सुख स्वर्ग से विशिष्ट एवं उत्तम था। उनके राज्य की सारी स्त्रियाँ पतिव्रता, रूपवती, आभूषणों से विभूषित और शस्त्रोक्त सदाचार से सम्पन्न होती थीं। वे अपने उत्तम गुणों द्वारा पति की प्रसन्नता को बढ़ाने में कारण होती थीं। पुरुष पुण्यशील अपने-अपने धर्म में अनुरक्त और सुखी थे। वे कभी सूक्ष्म से सूक्ष्म पाप भी नहीं करते थे। सभी स्त्री-पुरुष सदा प्रिय वचन बोलते थे, मन में कुटिलता नहीं आने देते थे, शुद्ध रहते थे और कभी थकावट का अनुभव नहीं करते थे। उन दिनों प्राय: भूतल के सभी मनुष्य कुण्डल, हार, कड़े और करधनी से विभूषित थे। सुन्दर वस्त्र और सुन्दर गन्ध से सुशोभित होते थे। सभी ब्राह्मण ब्रह्मवेता और समस्त शास्त्रों में परिनिष्ठित थे। उनके शरीर में झुरियाँ नहीं पड़ती थीं, उनके बाल सफेद नहीं होते थे और वे सुखी तथा दीर्घजीवी होते थे। महाराज! मनुष्यों की इच्छा परायी स्त्रियों के लिये नहीं होती थी, वर्णों में कभी संकरता नहीं आती थी और सब लोग मर्यादा में स्थित रहते थे।

राजेन्द्र युधिष्ठिर के शासनकाल में हिंसक पशु, सर्प और बिच्छू आदि न तो आपस में और न दूसरों को ही कभी बाधा पहँचाते थे। गौएँ बहुत दूध देती थीं, उनके मुख, पूँछ और उदर सुन्दर होते थे। किसान आदि उन्हें पीड़ा नहीं देते थे और उनके बछड़े भी नीरोग होते थे। उस समय के सभी मनुष्य अपने समय को व्यर्थ नहीं जाने देते थे। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन पुरुषार्थों में क्रमश: प्रवृत्त होते थे। शास्त्र में जिनका निषेध नहीं किया गया है, उन्हीं विषयों का सेवन करते और वेदशास्त्रों के स्वाध्याय के लिये सदा उद्यत रहते थे।[2] उस समय के बैल अच्छी चाल-ढाल वाले, हृष्ट-पुष्ट, अच्छे स्वभाव वाले और सुख की प्राप्ति कराने वाले होते थे। उन दिनों शब्द और स्पर्श नामक विषय अत्यन्त मधुर होते थे। रस बहुत ही सुखद जान पड़ता था, रूप दर्शनीय एवं रमणीय प्रतीत होता था और गन्ध नामक विषय भी मनोरम जान पड़ता था। सबका मन धर्म, अर्थ और काम में संलग्र, मोक्ष और अभ्युदय के साधन में तत्पर, आनन्द जनक और पवित्र होता था। स्थावर (वृक्ष) बहुत से फूलों से सुशोभित तथा फल और छाया देने वाले होते थे। उनका स्पर्श सुखद जान पड़ता था और वे विष से हीन तथा सुन्दर पत्र, छाल और अंकुर से युक्त होते थे। सबकी चेष्टाएँ मन के अनुकूल होती थीं। पृथ्वी पर किसी प्रकार का संताप नहीं होता था। राजर्षि युधिष्ठिर स्वयं जैसे आचार-विचार से युक्त थे, उसी का भूतल पर प्रसार हुआ था। समस्त पाण्डव सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से सम्पन्न, धर्माचारण करने वाले और बड़े भाई की आज्ञा के अधीन रहने वाले थे। उनका दर्शन सभी को प्रिय था। उनकी छाती सिंह के समान चौड़ी थी। वे क्रोध पर विजय पाने वाले और तेज एवं बल से सम्पन्न थे। उन सबकी भुजाएँ घुटनों तक लंबी थी। वे सभी दानशील एवं जितेन्द्रिय थे। पाण्डव जब इस पृथ्वी का शासन कर रहे थे, उस समय सभी ऋतुएँ अपने गुणों से सुशोभित होती थीं। ताराओं सहित समस्त ग्रह सब के लिये सुखद हो गये थे। पृथ्वी पर खेती की उपज बढ़ गयी थी। सभी रत्न और गुण प्रकट हो गये थे। कामधेनु के समान वह सहस्रों प्रकार के भोगरूप फल देती थी। पूर्वकाल मेें मनु आदि राजर्षियों ने मनुष्यों में जो मर्यादाएँ स्थापित की थीं, उन सबका तथा कुलोचित सदाचारों का उल्लंघन न करते हुए भूमण्डल के सभी राजा अपने-अपने राज्य का शासन करते थे। इस प्रकार सभी भूपाल धर्मपुत्र युधिष्ठिर का प्रिय करने वाले थे। धर्मिष्ठ राजा श्रेष्ठ कुलों को विशेष प्रोत्साहन देते थे। वे मनु की बनायी हुई राजनीति के अनुसार इस वसुधा का शासन करते थे। तात! इस पृथ्वी पर राजाओं के बर्ताव सदा धर्मानुकूल होते थे। प्राय: लोगों की बुद्धि राजा के ही बर्ताव का अनुसरण करने वाली होती है। जैसे इन्द्र स्वर्ग का शासन करते थे, उसी प्रकार गाण्डीवधारी अर्जुन से सुरक्षित राजा युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के सहयोग से अपने राज्य -भारतवर्ष का शासन करते थे।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 14 भाग-1
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 14 भाग-2
  3. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 14 भाग-3

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