श्रीकृष्ण का अर्जुन से सिद्ध, महर्षि तथा काश्यप का संवाद सुनाना

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 16 में श्रीकृष्ण का अर्जुन से सिद्ध, महर्षि तथा काश्यप का संवाद सुनाने का वर्णन हुआ है।[1]

श्रीकृष्ण का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! श्रीकृष्ण ने कहा- शत्रुदमन! एक दिन की बात है, एक दुर्धर्ष ब्राह्मण ब्रह्मलोक से उतरकर स्वर्गलोक में होते हुए मेरे यहाँ आये। मैंने उनकी विधिवत पूजा की ओर मोझ धर्म के विषय में प्रश्न किया। भारत श्रेष्ठ है! मेरे प्रश्न का उन्होंने सुन्दर विधि से उत्तर दिया। पार्थ! वही मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। कोई अन्यथा विचार न करके इसे ध्यान देकर सुनो।

अर्जुन से सिद्ध, महर्षि तथा काश्यप का संवाद

ब्राह्मण ने कहा- श्रीकृष्ण! मधुसूदन! तुमने सब प्राणियों पर कृपा करके उनके मोह का नाश करने के लिये जो यह मोक्ष-धर्म से संबंध रखने वाला प्रश्न किया है, उसका मैं यथावत उत्तर दे रहा हूँ। प्रभो! माधव! सावधान होकर मेरी बात श्रवण करो।[1] प्राचीन समय में काश्यप नामक के एक धर्मज्ञ और तपस्वी ब्राह्मण किसी सिद्ध महर्षि के पास गये, जो धर्म के विषय में शासन के सम्पूर्ण रहस्यों को जानने वाले, भूत और भविष्य के ज्ञान-विज्ञान में प्रवीण, लोक-तत्त्व के ज्ञान में कुशल, सुख:दुख के रहस्य को समझने वाले, जन्म-मृत्यु के तत्त्वज्ञ, पाप-पुण्य के ज्ञाता और ऊँच-नीच प्राणियों को कर्मानुसार प्राप्त होने वाली गति के प्रत्यक्ष दृष्टा थे। वे मुक्त की भाँति विचरने वाले, सिद्ध, शान्तचित्त, जितेन्द्रिय, बह्मतेज से, देदीप्यमान, सर्वत्र घुमने वाले और अन्तर्धान विद्या के ज्ञाता थे। अदृश्य रहने वाले चक्रधारी सिद्धों के साथवे विचरते, बातचीत करते और उन्हीं के साथ एकान्प्त में बैठते थे। जैसे वायु कहीं आसक्त न होकर सर्वत्र प्रवाहित होती है, उसी तरह वे सर्वत्र अनासक्त भाव से स्वच्छन्दता पूर्वक विचरा करते थे। महर्षि काश्यप उनकी उपर्युत महिमा सुनकर ही उनके पास गये थे। निकट जाकर उन मेधावी, तपस्वी, धर्माभिलाषी और एकाग्रचित्त महर्षि ने न्यायानुसार उन सिद्ध महात्मा के चरणों में प्रणाम किया। वे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ और बड़े अद्भुत संत थे। उनमें सब प्रकार की योग्यता थी। वे शास्त्र के ज्ञाता और सच्चरित्र थे। उनका दर्शन करके काश्यप को बड़ा विस्मय हुआ। वे उन्हें गुरु मानकर उनकी सेवा में लग गये और शुश्रुणा, गुरुभक्ति तथा श्रद्धाभाव के द्वारा उन्होंने उन सिद्ध महात्मा को संतुष्ट कर लिया। जनार्दन! अपने शिष्य काश्यप के ऊपर प्रसन्न होकर उन सिद्ध महर्षि ने परासिद्धि के संबंध में विचार करके जो उपदेश किया, उसे बताता हूँ, सुनो। सिद्ध ने कहा- तात कश्यप! मनुष्य नाना प्रकार के शुभ कर्मो का अनुष्ठान करके केवल पुष्य के संयोग से इस लोक में उत्तम फल और देवलोक में स्थान प्राप्त करते हैं। जीवन को कहीं भी अत्यन्त सुख नहीं मिलता। किसी भी लोक में वह सदा नहीं रहने पाता। तपस्या आदि के द्वारा कितने ही कष्ट सहकर बड़े-से-बड़े स्थान को क्यों न प्राप्त किया जाय, वहाँ से भी बार-बार नीचे आना ही पड़ता है। मैने काम-क्रोध से युक्त और तृष्णा से मोहित होकर अनेक बार पाप किये हैं और उनके सेवन के फलस्वरूप घोर कष्ट देने वाली अशुभ गतियों का भोग है। बार-बार जन्म और बार-बार मृत्यु का क्लेश उठाया है। तरह-तरह के आहार ग्रहण किये और अनेक स्तनों का दूध पीया है।[2]

अनध! बहुत-से पिता और भाँति-भाँति की माताएँ देखी है। विचित्र-विचित्र सुख-दु:खों का अनुभव किया है। कितनी ही बार मुझसे प्रियाजनों का वियोग और अप्रिय जनों का संयोग हुआ है। जिस धन को मैने बहुत कष्ट सहकर कमाया था, वह मेरे देखते-देखते नष्ट हो गया है। राजा और स्वजनों की ओर से मुझे कई बार बड़े-बड़े कष्ट और अपमान उठाने पड़े है। तन और मन की अत्यंत भंयकर वेदनाएँ सहनी पड़ी है। मैने अनेक बार घोर अपमान, प्राणदण्ड और कड़ी कैद की सजाएँ भोगी है। मुझे नरक में गिरना और यमलोक में मिलने वाली यातानाओं को सहना पड़ा है। इस लोक में जन्म लेकर मैने बारंबार बुढ़ापा, रोग, व्यसन और राग-द्वेषादि द्वन्दों की प्रचुर दु:ख सदा ही भोगे हैं। इस प्रकार बारंबार क्लेश उठाने से एक दिन मेरे मन में बड़ा खेद हुआ और मैं दुखों से घबराकर निराकर परमात्मा की शरण ली तथा समस्त लोकव्यवहार का परित्याग कर दिया।[2] इस लोक में अनुभव के पश्चात मैंने इस मार्ग का अवलम्बन किया है और अब परमात्मा की कृपा से मुझे यह उत्तम सिद्धि प्राप्त हुई है। अब मैं पुन: इस संसार में नहीं जाऊँगा। जब तक यह सृष्टि कायम रहेगी और जब तक मेरी मुक्ति नहीं हो जाएगी, तब तक मैं अपनी और दूसरे प्राणियों की शुभगतिका अवलोकन करूँगा। द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार मुझे यह उत्तम सिद्धी मिली है। इसके बाद मैं उत्तम लोक में जाऊँगा। फिर उससे भी परम उत्कृष्ट सत्यलोक में जा पहुँचूँगा और क्रमश: अव्यक्त ब्रह्मपद (मोक्ष) को प्राप्त कर लूँगा। इसमें तुम्हें संशय नहीं करना चाहिये। काम-क्रोध आदि शत्रुओं को संताप देने वाला काश्यप! अब मैं पुन: इस मृत्युलोक में नहीं आऊँगा। महाप्राज्ञ! मैं तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हूँ। बोलों, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? तुम जिस वस्तु को पाने की इच्छा से मेरे पास आये हो, उसके प्राप्त होने का यह समय आ गया है। तुम्हारे आने का उद्देश्य क्या है, इसें मैं जानता हूँ और शीघ्र ही यहाँ से चला जाऊँगा। इसलिये मैने स्वयं तुम्हें प्रश्न करने के लिये प्रेरिता किया है। विद्धन! तुम्हारे उत्तम आचरण से मुझे बड़ा संतोष है। तुम अपने कल्याण की बात पूछो। मैं तुम्हारे अभीष्ट प्रश्न का उत्तर दूँगा। काश्यप! मैं तुम्हारी बुद्धि की सराहना करता और उसे बहुत आदर देता हूँ। तुमने मुझे पहचान लिया है, इसी से कहता हूँ कि बड़े बुद्धिमान हो।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-18
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 16 श्लोक 19-38
  3. महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 16 श्लोक 39-46

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