श्रीकृष्ण का द्वारकागमन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में श्रीकृष्ण के द्वारकागमन का वर्णन हुआ है।[1]

कृष्ण का द्वारका मे आगमन

वैशम्‍पायन जी कहते हैं– जनमेजय! साक्षातविष्‍णुस्‍वरूप जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्‍ण के मुख से भागवत धर्मों का श्रवण करके इस अद्भुद प्रसंग पर विचार करते हुए ऋषि और पाण्‍डव लोग बहुत प्रसन्‍न हुए और सबने भगवान को प्रणाम किया। धर्मनन्‍दन युधिष्ठिर ने तो बारंबार गोविन्‍द का पूजन किया। देवता, ब्रह्मर्षि, सिद्ध, गन्धर्व, अप्‍सराएं, ऋषि, महात्‍मा, गुह्मक, सर्प, महात्‍मा बालखिल्य, तत्त्वदर्शी योगी तथा पन्‍चयाम उपासना करने वाले भगवद् भक्‍त पुरुष, जो अत्‍यन्‍त उत्‍कण्‍ठित होकर उपदेश सुनने के लिये पधारे थे, इस परम पवित्र वैष्‍णव-धर्म का उपदेश सुनकर तत्‍क्षण निष्‍पाप एवं पवित्र हो गये। सबमें भगवद्भक्‍ति उमड आयी। फिर उन सबने भगवान के चरणों में मस्‍तक झुकाकर प्रणाम किया और उनके उपदेश की प्रशंसा की। फिर ‘भगवान्! अब हम द्वारका में पुन: आप जगद्गुरु का दर्शन करेंगे।’ यों कहकर सब ऋषि प्रसन्‍नचित हो देवताओं के साथ अपने-अपने स्‍थान को चले गये। राजन्! उन सबके चले जाने पर केशिनिषूदन भगवान श्रीकृष्‍ण ने सात्‍यकि सहित दारुक को याद किया।

सारथि दारुक पास ही बैठा था, उसने निवेदन किया– ‘भगवन! रथ तैयार है, पधारिये।’ यह सुनकर पाण्‍डवों का मुहं उदास हो गया। उन्होंने हाथ जोडकर सिर से लगाया और वे आँसू भरे नत्रों से पुरुषोत्‍तम श्रीकृष्‍ण की ओर एकटक देखने लगे, किंतु अत्‍यन्‍त दुखी होने के कारण उस समय कुछ बोल न सके। देवेश्‍वर भगवान श्रीकृष्‍ण भी उनकी दशा देखकर दुखी-से हो गये और उन्‍होंने कुन्‍ती, धृतराष्‍ट्र, गान्‍धारी, विदुर, द्रौपदी, महर्षि व्‍यास और अन्‍यान्‍य ऋषियों एवं मन्‍त्रियों से विदा लेकर सुभद्रा तथा पुत्र सहित उत्तरा की पीठ पर हाथ फेरा और आशीर्वाद देकर वे उस राजभवन से बाहर निकल आये और रथ पर सवार हो गये। उस रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम वाले चार घोड़े जुते हुए थे तथा बुद्धिमान गरुड़ का ध्‍वज फहरा रहा था।[1]

वैशम्पायन द्वारा कृष्ण की सौन्दर्यता का वर्णन

उस समय कुरुदेश के राजा युधिष्‍ठर भी प्रेमवश भगवान के पीछे–पीछे स्‍वयं भी रथ पर जा बैठे और तुरंत ही श्रेष्‍ठ दारुक को सारथि के स्‍थान से हटाकर उन्‍होंने घोडों की बागडोर अपने हाथ में ले ली। फिर अर्जुन भी रथ पर आरूढ़ हो स्‍वर्णदण्‍ड युक्‍त विशाल चँवर हाथ में लेकर दाहिनी ओर से भगवान के मस्तक पर हवा करने लगे। इसी प्रकार महाबली भीमसेन भी रथ पर जा चढे और भगवान के ऊपर छत्र सौ कमानियों से युक्‍त तथा दिव्‍य मालाओं से सुशोभित था। उसका डंडा वैदूर्यमणि का बना हुआ था तथा सोने की झालरें उसकी शोभा बढ़ा रही थीं।

भीमसेन ने शार्ग्‍डधनुषधारी श्रीकृष्‍ण के उस छत्र को शीघ्र ही धारण कर लिया। नकुल और सहदेव भी अपने हाथों में सफेद चँवर लिये शीघ्र रथ पर सवार हो गये और भगवान जनार्दन के ऊपर डुलाने लगे। इस प्रकार युधिष्‍ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ने हर्षपूर्वक श्रीकृष्‍ण का अनुसरण किया और कहने लगे– ‘आप मत जाइये’। तीन योजन (चौबीस मील) तक चले आने के बाद भगवान श्रीकृष्‍ण ने अपने चरणों में पडे हुए पाण्‍डवों को गले से लगाकर विदा किया और स्‍वयं द्वारका को चले गये।

इस प्रकार भगवान गाविन्‍द को प्रणाम करके जब पाण्‍डव घर लौटे, उस दिन से सदा धर्म में तत्‍पर रहकर कपिला आदि गौओं का दान करने लगे। वे सब पाण्‍डव भगवान श्रीकृष्‍ण के वचनों को बारंबार याद करके और उनको हृदय में धारण करके मन-ही-मन उनकी सराहना करते थे। धर्मात्‍मा युधिष्‍ठिर ध्‍यान द्वारा भगवान को अपने हृदय में विराजमान करके उन्‍हीं के भजन में लग गये, उन्‍हीं का स्‍मरण करने लगे और योगयुक्‍त होकर भगवान का यजन करते हुए उन्‍हीं के परायण हो गये।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-63
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-64

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