भूमि दान की महिमा

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में भूमि दान की महिमा का वर्णन हुआ है।[1]

कृष्ण द्वारा भूमि दान की महिमा का वर्णन

श्री भगवान ने कहा– पाण्‍डुनन्‍दन! अब मैं सबसे उत्‍तम भूमि दान का वर्णन करता हूँ। जो मनुष्‍य रमणीय भूमिका दक्षिणा के साथ श्रोत्रिय अग्‍निहोत्री दरिद्र ब्राह्मण को दान देता है, वह उस समय सभी भोगों से तृप्‍त, सम्‍पूर्ण रत्‍नों से विभूषित एवं सब पापों से मुक्‍त हो सूर्य के समान देदीप्‍यमान होता है। वह महायशस्‍वी पुरुष प्रात:कालीन सूर्य के समान प्रकाशित, विचित्र ध्‍वजाओं से सुशोभित दिव्‍य विमान के द्वारा मेरे लोक में जाता है। क्‍योंकि भूमि दान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है और भूमि छीन लेने से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है। कुरुश्रेष्‍ठ! दूसरे दानों के पुण्‍य समय पाकर क्षीण हो जाते हैं, किंतु भूमिदान के पुण्‍य का कभी भी क्षय नहीं होता। राजन! पृथ्‍वी का दान करने वाला मानो सुवर्ण, मणि, रत्‍न, धन, और लक्ष्मी आदि समस्‍त पदार्थों का दान करता है। भूमि-दान करने वाला मनुष्‍य मानों समस्‍त समुद्रों को, सरिताओं को, पर्वतों को, सम-विषम प्रदेशों को, सम्‍पूर्ण गन्‍ध और रसों को देता है।

पृथ्‍वी का दान करने वाला मनुष्‍य मानो नाना प्रकार के पुष्‍पों और फलों से युक्‍त वृक्षों का तथा कमल और उत्‍पलों के समूहों का दान करता है। जो लोग दक्षिणा से युक्‍त अग्‍निष्‍टोम आदि यज्ञों के द्वारा देवताओं का यजन करते हैं, वे भी उस फल को नहीं पाते, जो भूमि–दान का फल है। जो मनुष्‍य श्रोत्रिय ब्राह्मण को धान से भरे हुए खेत की भूमि दान करता है, उसके पितर महाप्रलय काल तक तृप्‍त रहते हैं। राजेन्‍द्र! ब्राह्मण को भूमि–दान करने से सब देवता, सूर्य, शंकर और मैं– ये सभी प्रसन्‍न होते हैं ऐसा समझो। युधिष्‍ठर! भूमि–दान के पुण्‍य से पवित्र चित्त हुआ दाता मेरे परम धाम में निवास करता है– इसमें विचार करने की कोई बात नहीं है। मनुष्‍य जीविका के अभाव में जो कुछ पाप करता है, उससे गोकर्ण मात्र भूमि–दान करने पर भी छुटकारा पा जाता है। एक महीने तक उपवास, कृच्‍छ और चान्‍द्रायण व्रत का अनुष्‍ठान करने से जो पुण्‍य होता है, वह गोकर्ण मात्र भूमि– दान करने से हो जाता है।[1]

ब्राह्मण को भूमि दान करने का वर्णन

सम्‍पूर्ण तीर्थों में स्‍नान करने से जो पुण्‍य होता है, वह सारा पुण्‍य गोकर्ण मात्र भूमि का दान करने से प्राप्‍त हो जाता है। युधिष्‍ठिर ने कहा– देवेश्‍वर कृष्‍ण! आपको नमस्‍कार है। सुरेश्‍वर! मुझे गोकर्ण मात्र भूमि का दान ठीक–ठीक माप बतलाने की कृपा कीजिये। श्री भगवान बोले- नृपश्रेष्‍ठ पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्‍ठिर! गोकर्ण मात्र भमि का प्रमाण सुनो। पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण चारों ओर तीस– तीस दण्‍ड नापने से जितनी भूमि होती है, उसको भूमि के तत्‍व को जानने वाले पुरुष गोकर्ण मात्र भूमि का माप बताते हैं। कुरुश्रेष्‍ठ! जितनी भूमि में खुली हुई सौ गौएं बैलों और बछड़ों के साथ सुखपूर्वक रह सकें, उतनी भूमि को भी गोकर्ण कहते हैं। भूमि का दान करने वाले पुरुष के पास यमराज के दूत नहीं फटकने पाते। मृत्‍यु के दण्‍ड, दारुण कुम्‍भीपाक, भयानक वरुणपाश, रौरव आदि नरक, वैतरणी नदी और कठोर यम– यातनाएं भी भूमिदान करने वालों को नहीं सतातीं। चित्रगुप्‍त, कलि, काल, कृतान्‍त मृत्‍यु और साक्षात भगवान यम भी भूमि का दान करने वाले का आदर करते हैं।

राजन! रुद्र, प्रजापति, इन्‍द्र, देवता, ऋषिगण और स्‍वयं मैं– ये सभी प्रसन्‍न होकर भूमि दाता का आदर करते हैं। नरश्रेष्‍ठ! जिसके कुटुम्‍ब के लोग जीविका के अभाव से दुर्बल हो गये हों, जिसकी गौएं और घोड़े भी दुबले–पतले दिखाई देते हों तथा जो सदा अतिथि-सत्‍कार करने वाला हो, ऐसे ब्राह्मण को भूमि दान देना चाहिये ; क्‍योंकि वह परलोक के लिये खजाना है। नरेश्वर! जिसके कुटुम्‍बीजन कष्‍ट पा रहें हों– ऐसे श्रोत्रिय, अग्‍निहोत्री, व्रतधारी, एवं दरिद्र ब्राह्मण को भूमि देनी चाहिये। जैसे धाय अपना दूध पिलाकर पुत्र का पालन पोषण करती है, उसी प्रकार दान में दी हुई भूमि दाता पर अनुग्रह करती है। जैसे गौ अपना दूध पिलाकर बछड़े का पालन करती है, वैसे ही सर्वगुण सम्‍पन्‍न भूमि अपने दाता का कल्‍याण करती है। भूपाल! जिस प्रकार जल से सीचें हुए बीज अंकुरित होते हैं, वैसे ही भूमि दाता के मनोरथ प्रतिदिन पूर्ण होते रहते हैं।

जैसे सूर्य का तेज समस्‍त अन्‍धकार को दूर कर देता है, उसी प्रकार यहाँ भूमि दान मनुष्‍य के सम्‍पूर्ण पापों का नाश कर डालता है। कुरुश्रेष्‍ठ! जो भूमि दान की प्रतिज्ञा करके नहीं देता अथवा देकर फिर छीन लेता है, उसे वरुण के पाश से बांधकर पीब और रक्‍त से भरे हुए नरक–कुण्‍ड में डाला जाता है। जो अपने या दूसरे की दी हुई भूमि का अपनहरण करता है, उसके लिये नरक से उद्धार पाने का कोई उपाय नहीं है। जो श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों को भूमि का दान करके उसी से अपनी जीविका चलाता है, वह दुष्‍टात्‍मा मूर्ख इक्‍कीस नरकों में गिरता है। फिर नरकों से निकलकर कुत्‍तों की योनि को प्राप्‍त होता है। जिसमें हल से जोतकर बीज बो दिये गये हों तथा जहाँ हरी–भरी खेती लहलहा रही हो, ऐसी भूमि दरिद्र ब्राह्मण को देनी चाहिये अथवा जहाँ जल का सुभीता हो, वह भूमि दान में देनी चाहिये। राजन! इस प्रकार प्रसन्‍नचित्त होकर मनुष्‍य यदि पृथ्‍वी का दान करे तो वह सम्‍पूर्ण मनोवांछित कामनाओं को प्राप्‍त करता है।[2]

बहुत–से राजाओं ने इस पृथ्‍वी को दान में दिया है और बहुत से अभी दे रहे हैं। यह भूमि जब जिसके अधिकार में रहती है, उस समय वही उसे दान में देता है और उसके फल का भागी होता है।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-22
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-23
  3. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-24

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