ब्रह्मा द्वारा बुद्धिमान की प्रशंसा

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 50 में ब्रह्मा द्वारा बुद्धिमान की प्रशंसा का वर्णन हुआ है।[1]

ब्रह्मा का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ब्रह्मा जी बोले- श्रेष्ठ महर्षियों! जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं है, उसे हजार उपाय करने पर भी ज्ञान नहीं होता और जो बुद्धिमान है वह चौथाई प्रयत्न से भी ज्ञान पाकर सुख का अनुभव करता है। ऐसा विचार कर किसी उपाय से धर्म के साधन का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि उपाय को जानने वाला मेधावी पुरुष अत्यन्त सुख का भागी होता है। जैसे कोई मनुष्य यदि राह खर्च का प्रबन्ध किये बिना ही यात्रा करता है तो उसे मार्ग में बहुत क्लेश उठाना पड़ता है अथवा वह बीच ही में मर भी सकता है। ऐसे ही (पूर्व जन्मों के पुण्यों से ही पुरुष) योग मार्ग के साधन में लगने पर योग सिद्धि रूप फल कठिनता से पाता है अथवा नहीं भी पाता। पुरुष का अपना कल्याण साधन ही उसके पूर्वजनम के शुभाशुभ संस्कारों को बताने वाला है। जैसे पहले न देखे हुए दूर के रास्ते पर जब मनुष्य सहसा पैदल ही चल पड़ता है (तो वह अपने गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुँच पाता), यही दशा तत्त्व ज्ञान से रहित अज्ञानी पुरुष की होती है।

बुद्धिमान की प्रशंसा

किंतु उसी मार्ग पर घोड़े जुते हुए शीर्घ गामी रथ के द्वारा यात्रा करने वाला पुरुष जिस प्रकार शीघ्र ही अपने लक्ष्य स्थान पर पहुँच जाता है तथा वह ऊँचे पर्वत पर चढ़कर नीचे पृथ्वी की ओर नहीं देखता, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुषों की गति होती है। देखो, रथ के द्वारा जाने वाला भी मूर्ख मनुष्य ऊँचे पर्वत के पास पहुँचकर कष्ट पाता रहता है, किंतु बुद्धिमान मनुष्य जहाँ तक रथ जाने का मार्ग है वहाँ तक रथ से जाता है और जब रथ का रास्ता समाप्त हो जाता है तब वह उसे छोड़कर पैदल यात्रा करता है। इसी प्रकार तत्त्व और योगविधि को जानने वाला बुद्धिमान एवं गुणज्ञ पुरुष अच्छी तरह समझ बूझकर उत्तरोतर आगे बढ़ता जाता है। जैसे कोई पुरुष मोहवश बिना नाव के ही भयंकर समुद्र में प्रवेश करता है और दोनों भुजाओं से ही तैरकर उसके पार होने का भरोसा रखता है तो निश्चय ही वह अपनी मौत बुलाना चाहता है (उसी प्रकार ज्ञान नौका का सहारा लिये बिना मनुष्य भवसागर से पार नहीं हो सकता)। जिस तरह जल मार्ग के विभाग को जानने वाला बुद्धिमान पुरुष सुन्दर डाँड वाली नाव के द्वारा अनायास ही जल पर यात्रा करके शीघ्र समुद्र से तर जाता है एवं पार पहुँच जाने पर नाव की ममता छोड़कर चल देता है, (उसी प्रकार संसार सागर से पार हो जाने पर बुद्धिमान पुरुष पहले के साधन सामग्री की ममता छोड़ देता है।) यह बात रथ पर चलने वाले और पैदल चलने वाले के दृष्टान्त से पहले भी कही जा चुकी है। परंतु स्नेहवश मोह को प्राप्त हुआ मनुष्य ममता से आबद्ध होकर नाव पर सदा बैठे रहने वाले मल्लाह की भाँति वहीं चक्कर काटता रहता है। नौका पर चढ़कर जिस प्रकार स्थल पर विचरण करना सम्भव नहीं है तथा रथ पर चढ़कर जल में विचरण करना सम्भव नहीं बताया गया है, इसी प्रकार किये हुए विचित्र कर्म अलग-अलग स्थान पर पहुँचाने वाले हैं। संसार में जिनके द्वारा जैसा कर्म किया गया है, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त होता है।[1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 50 श्लोक 17-32

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