गुरु-शिष्य के संवाद में मोक्ष प्राप्ति के उपाय का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 19 में गुरु-शिष्य के संवाद में मोक्ष प्राप्ति के उपाय का वर्णन हुआ है।[1]

गुरु-शिष्य के संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सिद्ध ब्राह्मण ने कहा- काश्यप! जो मनुष्य (स्थूल, सूक्षम और कारण शीरीरों में क्रमश:) पूर्व- पूर्व का अभिमान त्यागकर कुछ भी चिन्तन नहीं करता और मौन भाव से रहकर सब के एकमात्र अधिष्ठान पर ब्रह्म परमात्मा में लीन रहता है, वही संसार बन्धन से मुक्त होता है। जो सबका मित्र, सब कुछ सहने वाला, मनोनिग्रह में तत्पर, जितेन्द्रिय, भय और क्रोध से रहित तथा आत्मवान है, वह मनुष्य बन्धन से मुक्त हो जाता है। जो नियमपरायण और पवित्र रहकर सब प्राणियों के प्रति आपने जैसा बर्ताव करता है, जिसके भीतर सम्मान पाने की इच्छा नहीं है तथा जो अभिमान से दूर रहता है, वह सर्वथा मुक्त ही है। जो जीवन मरण, सुख दु:ख, लाभ-हानि तथा प्रिय-अप्रिय आदि द्वन्द्वदों को समभाव से देखता है, वह मुक्त हो जाता है। जो किसी के द्रव्य का लोभ नहीं रखता, किसी की अवहेलना नहीं करता, जिसके मन पर द्वन्द्वों का प्रभाव नहीं पड़ता और जिसके चित्त की आसक्ति दूर हो गयी है, वह सर्वथा मुक्त ही है। जो किसी को अपना मित्र, बन्धु या संतान नहीं मानता, जिसने सकाम धर्म, अर्थ और काम का त्याग कर दिया है तथा जो सब प्रकार की आकांक्षाओं से रहित है, वह मुक्त हो जाता है।

जिसकी न धर्म में आसक्ति है न अधर्म में, जो पूर्व संचित कर्मों को त्याग चुका है, वासनाओं का क्षय हो जाने से जिसका चित्त शान्त हो गया है तथा जो सब प्रकार के द्वन्द्वदों से रहित है, वह मुक्त हो जाता है। जो किसी भी कर्म का कर्ता नहीं बनता, जिसके मन में कोई कामना नहीं है, जो इस जगत को अश्वत्थ के समान अनित्य-कल तक न टिक सकने वाला समझता है तथा जो सदा इसे जन्म, मृत्यु और जरा से युक्त जानता है, जिसकी बुद्धि वैराज्य में लगी है और जो निरन्तर अपने दोषों पर दृष्टि रखता है, वह शीघ्र ही अपने बन्धन का नाश कर देता है। जो आत्मा को गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, परिग्रह, रूप से रहित तथा अज्ञेय मानता है, वह मुक्त हो जाता है। जिसकी दृष्टि में आत्मा पांच भौतिक गणों से हीन, निराकार, कारण रहित तथा निर्गुण होते हुए भी (माया के सम्बन्ध से) गुणों का भोक्ता है, वह मुक्त हो जाता है। जो बुद्धि से विचार करके शारीरिक और मानसिक सब संकल्पों का त्याग कर देता है, वह बिना ईंधन की आग के समान धीरे-धीरे शान्ति को प्राप्त हो जाता है। जो सब प्रकार के संस्कारों से रहित, द्वन्द्व और परिग्रह से रहित हो गया है तथा जो तपस्या के द्वारा इन्द्रिय-समूह को अपने वश में करके (अनासक्त) भाव से विचरता है, वह मुक्त ही है। जो सब प्रकार के संस्कारों से मुक्त होता है, वह मनुष्य शान्त, अचल, नित्य, अविनशी एवं सनातन पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। अब मैं उस परम उत्तम योग शास्त्र का वर्णन करूँगा, जिसके अनुसार योग-साधन करने वाले योगी पुरुष अपने आत्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं। मैं उसका यथावत उपदेश करता हूँ।

मोक्ष प्राप्ति के उपाय का वर्णन

मनोनिग्रह के जिन उपयों द्वारा चित्त को इस शरीर के भीतर ही वशीभूतएवं अन्तमुर्ख करके योगी आने नित्य आत्मा का दर्शन करता है, उन्हें मुझ से श्रवण करो।[1]इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर मन में और मन को आत्मा में स्थापित करे। इस प्रकार पहले तीव्र तपस्या करके फिर मोक्षोपयोगी उपाय का अवलम्बन करना चाहिये। मनीषी ब्राह्मण को चाहिये कि वह सदा तपस्या में प्रवृत्त एवं यत्नशील होकर योग शास्त्रों का उपाय का अनुष्ठान करे। इससे वह मन के द्वारा अन्त:करण में आत्मा का साक्षात्कार करता है। एकान्त में रहने वाला साधक पुरुष यदि अपने मन को आत्मा में लगाये रखने में सफल हो जाता है तो वह अवश्य ही अपने में आत्मा का दर्शन करता है। जो साधक सदा संयमपरायण, योगयुक्त, मन को वश में करने वाला और जितेन्द्रिय है, वही आत्मा से प्रेरित हाकर बुद्धि के द्वारा उसका साक्षात्कार कर सकता है। जैस मुनष्य सपने में किसी अपरिचित पुरुष को देखक जब पुन: उसे जाग्रत अवस्था में देखता है, तब तुरंत पहचान लेता है कि ‘यह वही है।’ उसी प्रकार साधन परायण योगी समाधि अवस्था में आत्मा को जिस रूप में देखता है, उसी रूप में उसके बाद भी देखता रहता है। जैसे कोई मनुष्य मूँज से सींक को अलग करके दिखा दे, वैसे ही योगी पुरुष आत्मा को इस देह से पृथक करके देखता है। यहाँ शरीर को मूँज कहा गया है और आत्मा को सींक। योग वेत्ताओं ने देह और आत्मा के पार्थक्य को समझ ने के लिये यह बहुत उत्तम दृष्टान्त दिया है। देहधारी जीव जब योग के द्वारा आत्मा का यथार्थ रूप से दर्शन कर लेता हे, उस समय उसके ऊपर त्रिभुवन के अधीश्वर का भी आधिपत्य नहीं रहता है। वह योगी अननी इच्छा के अनुसार विभिन्न प्रकार के शरीर धारण कर सकता है, बुढ़ापा और मृत्यु को भी भगा देता है, वह न कभी शोक करता है न हर्ष। अपनी इंद्रियों को वश में रखने वाला योगी पुरुष देवताओं का भी देवता हो सकता है। वह इस अनित्य शरीर का त्याग करके अविनाशी ब्रह्म को प्राप्त होता है।[2]

सम्पूर्ण प्राणियों का विनाश होने पर भी उसे भय नहीं होता। सबके क्लेश उठाने पर भी उसको किसी से क्लेश नहीं पहुँचता। शान्तचित्त एवं नि:स्पृह योगी आसक्ति और स्नेह से प्राप्त होने वाले भयंकर दु:ख शोक तथा भय से विचलित नहीं होता। उसे शस्त्र नहीं बींध सकते, मृत्यु उसके पास नहीं पहुँच पाती, संसार में उससे बढ़कर सुखी कहीं कोई नहीं दिखायी देता। वह मन को आत्मा में लीन करके उसी में स्थित हो जाता है तथा बुढ़ापा के दु:खों से छुटकारा पाकर सुख से सोता-अक्षय आनन्द का अनुभव करता है। वह इस मानव शरीर का त्याग करके इच्छानुसार दूसरे बहुत से शरीर धारण करता है। योगजनित ऐश्वर्य का उपभोग करने वाले योगी को योग से किसी तरह विरक्त नहीं होना चाहिये। अच्छी तरह योग का अभ्यास करके जब योगी अपने में ही आत्मा का साक्षात्कार करने लगात है, उस समय वह साक्षात इन्द्र के पद को पाने की इच्छा नहीें करता है। एकान्त में ध्यान करने वाले पुरुष को जिस प्रकार योग की प्राप्ति होती है, वह सुनो- जो उपदेश पहले श्रुति में देखा गया है, उसका चिन्तन करके जिस भाग में जीव का निवास माना गया है, उसी में मन को भी स्थापित करे। उसके बाहर कदापि न जाने दे।[2] शरीर के भीतर रहते हुए वह आत्मा जिस आश्रय में स्थित होता है, उसी में बाह्य और आभ्यन्तर विषयों सहित मन को धारण करे। मूलाधार आदि किस आश्रय में चिन्तर करके जब वह सर्वस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार करता है, उस समय उसका मन प्रत्यक स्परूप आत्मा से भिन्न कोई ‘बाह्य’ वस्तु नहीं रह जाता। निर्जन वन में इन्द्रिय समुदाय को वश में करके एकाग्रचित्त हो शब्द शून्य अपने शरीर के बाहर और भीतर प्रत्येक अंग में परिपूर्ण परब्रह्म परमात्मा का चिन्तन करे। दन्त, तालु, जिह्वा, गला, ग्रीवा, हृदय तथा हृदय बन्धन (नाड़ी मार्ग) को भी परमात्म रूप से चिन्तन करे।[3]

शिष्य का प्रस्न

मधुसूदन! मेरे ऐसा कहने पर उस मेधावी शिष्य ने पुन: जिसका निरूपण करना अत्यन्त कठिन है, उस मोक्षधर्म के विषय में पूछा- ‘यह बारंबार खाया हुआ अन्न उदर में पहुँचकर कैसे पचता है? किस तरह उसका रस बनता है और किस प्रकार वह रक्त के रूप में परिणत हो जाता है? ‘स्त्री शरीर में मांस, मेदा, स्नायु और हड्डियाँ कैसे होती हैं? देहधारियों के समस्त शरीर कैसे बढ़ते हैं? बढ़ते हुए शरीर का बल कैसे बढ़ता है? जिनका सब ओर से अवरोध है, उन मलों का पृथक पृथक नि:सारण कैसे होता है? ‘यह जीव कैसे साँस लेता, कैसे अच्छ्वास खींचता और किस स्थान में रहकर इस शरीर में सदा विद्यमान रहता है? ‘चेष्टाशील जीवात्मा इस शरीर का भार कैसे वहन करता है? फिर कैसे और किस रंग के शरीर को धारण करता है। निष्पाप भगवन! यह सब मुझे यथार्थरूप से बताइये’।

ब्राह्मण का उत्तर

शत्रुदमन महाबाहु माधव! उस ब्राह्मण के इस प्रकार पूछने पर मैंने जैसा सुना था वैसा ही उसे बताया। जैसे घर का सामान अपने कोटे में डालकर भी मनुष्य उन्हीं के चिन्तन में मन लगाये रहता है, उसी प्रकार इन्द्रियरूपी चंचल द्वादरों से विचरने वाले मन को अपनी काया में ही स्थापित करके वहीं आत्मा का अनुसंधान करे और प्रमाद को त्याग दे। इस प्रकार सदा ध्यान के लिये प्रयत्न करने वाले पुरुष का चित्त शीघ्र ही प्रसन्न हो जाता है और वह उस परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, जिसका साक्षात्कार करके मनुष्य प्रकृति एवं उसके विकारों को स्वत: जान लेता है। उस परमात्मा का इन चर्म चक्षुओं से दर्शन नहीं हो सकता, सम्पूर्ण इन्द्रियों से भी उसको ग्रहण नहीं किया जा सकता, केवल बुद्धिरूपी दीपक ही सहायता से ही उस महान आत्मा का दर्शन होता है। वह सब ओर हाथ पैर वाला, सब ओर नेत्र और सिर वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है।

तत्त्वज्ञ जीव अपने आपको शरीर से पृथक देखता है। वह शरीर के भीतर रहकर भी उसका त्याग करे उसकी पृथकता का अनुभव करके अपने स्वरूप भूत केवल परब्रह्म परमात्मा का चिन्तन करता हुआ बुद्धि के सहयोग से आत्मा का साक्षात्कार करता है। उस समय वह यह सोचकर हँसता सा रहता है कि अहो! मृगतृष्णा में प्रतीत होने वाले जल की भाँति मुझ में ही प्रतीत होने वाले इस संसार ने मुझे अब तक व्यर्थ ही भ्रम में डाल रखा था। जो इस प्रकार परमात्मा का दर्शन करता है, वह उसी का आश्रय लेकर अन्त में मुझ में ही मुक्त हो जाता है।[4][3] द्विजश्रेष्ठ! यह सारा रहस्य मैंने तुम्हें बता दिया। अब मैं जाने की अनुमति चाहता हूँ। विप्रवर! तुम भी सुखपूर्वक अपने स्थान को लौट जाओ। श्रीकृष्ण! मेरे इस प्रकार कहने पर वह कठोर व्रत का पालन करने वाला मेरा महातपस्वी शिष्य ब्राह्मण काश्यप इच्छानुसार अपने अभीष्ट स्थान को चला गया।[5]

श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का संवाद

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- अर्जुन! मोक्ष धर्म का आश्रय लेने वाले वे सिद्ध महात्मा श्रेष्ठ ब्राह्मण मुझ से यह प्रसंग सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये। पार्थ! क्या तुमने मरे बाताये हुए इस उपदेश को एकाग्रचित्त होकर सुना है? उस युद्ध के समय भी तुमने रथ पर बैठे-बैठे इसी तत्त्व को सुना था। कुन्तीनन्दन! मेरा तो ऐसा विश्वा है कि जिसका चित्त व्यग्र है, जिसे ज्ञान का उपदेश नहीं प्राप्त है, वह मनुष्य इस विषय को सुगमतापूर्वक नहीं समझ सकता। जिसका अन्त:करण शुद्ध है वही इसे जान सकता है। भरत श्रेष्ठ! यह मैंने देवताओं का परम गोपनीय रहस्य बताया है। पार्थ! इस जगत में किसी भी मनुष्य ने इस रहस्य का श्रवण नहीं किया है। अनघ! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मनुष्य इसे सुनने का अधिकारी भी नहीं है। जिसका चित्त दुविधा में पड़ा हुआ है, वह इस समय इसे अच्छी तरह नहीं समझ सकता। कुन्तीकुमार! क्रियावान पुरषों से देवलोक भरा पड़ा है। देवताओं का यह अभीष्ट नहीं है कि मनुष्य के मर्त्यरूप की निवृत्ति हो। पार्थ! जो सनातन ब्रह्म है, वही जीव की परम गति है। ज्ञानी मनुष्य देह को त्यागकर उस ब्रह्म में ही अमृतत्त्व को प्राप्त होता है और सदा के लिये सुखी हो जाता है। इस आत्मदर्शन रूप धर्म का आश्रय लेकर वैश्य और शूद्र तथा जो पाप योनि के मनुष्य है वे परमगति को प्राप्त हो जाते हैं। पार्थ! फिर जो अपने धर्म में प्रेम रखते और ब्रह्मलोक की प्राप्ति के साधन में लगे रहते हैं, उन बहुश्रुत ब्राह्मण और क्षत्रियों की तो बात ही क्या है? इस प्रकार मैंने तुम्हें मोक्षधर्म का युक्तियुक्त उपदेश किया है। उसके साधन के उपाय भी बतलाये है और सिद्धि, फल, मोक्ष तथा दु:ख के स्वरूप का भी निर्णय किया है। भरत श्रेष्ठ! इससे बढ़कर दूसरा कोई सुखदायक धर्म नहीं है। पाण्डुनन्दन! जो काई बुद्धिमान, श्रद्धलु और पराक्रमी मनुष्य लौकिक सुख को सारहीन समझकर उसे त्याग देता है, वह उपर्युक्त इन उपायों के द्वारा बहुत शीघ्र परम गति को प्राप्त कर लेता है। पार्थ! इतना ही कहने योज्य विषय है। इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है। जो छ: महीने तक निरन्तर योग का अभ्यास करता है, उसका उयोग अवश्य सिद्ध हो जाता है।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 19 श्लोक 17-33
  3. 3.0 3.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 19 श्लोक 34-51
  4. अर्थात अपने आप में ही परमात्मा का अनुभव करने लगता है
  5. 5.0 5.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 19 श्लोक 52-66

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