बृहस्पति का मनुष्य को यज्ञ न कराने की प्रतिज्ञा करना

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अश्वमेधिक पर्व के अंतर्गत अध्याय 5 में बृहस्पति का मनुष्य को यज्ञ न कराने की प्रतिज्ञा करने का वर्णन हुआ है।[1]

युधिष्ठिर का प्रस्न

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा। वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे! राजा मरुत्त का पराक्रम कैसा था? तथा उन्हें सुवर्ण की प्राप्ति कैसे हुई? भगवन! तपोधन! वह द्रव्य इस समय कहाँ है? और हम उसे किस तरह प्राप्त कर सकते हैं?

व्यास का उत्तर

व्यास जी ने कहा- तात! प्रजापति दक्ष के देवता और असुर नामक बहुत-सी संतानें हैं, जो आपस में स्पर्धा रखती हैं। इसी प्रकार महर्षि अंगिरा के दो पुत्र हुए, जो व्रत का पालन करने में एक समान हैं। उनमें से एक हैं महातेजस्वी बृहस्पति और दूसरे हैं तपस्या के धनी संवर्त। राजन! वे दोनों भाई एक-दूसरे से अलग रहते ओर आपस में बड़ी स्पर्धा रखते थे। बृहस्पति अपने छोटे भाई संवर्त को बारंबार सताया करते थे। भारत! अपने बड़े भाई के द्वारा सदा सताये जाने पर संवर्त धन-दौलत का मोह छोड़ घर से निकल गये ओर दिगम्बर होकर वन में रहने लगे। घर की अपेक्षा वनवास में ही उन्होंने सुख माना। इसी समय इन्द्र ने समस्त असुरों को जीतकर मार गिराया तथा त्रिभुवन का साम्राज्य प्राप्त कर लिया। तदनन्तर उन्होंने अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र विप्रवर बृहस्पति को अपना पुरोहित बनाया। इसके पहले अंगिरा के यजमान राजा करन्धम थे। संसार में बल, पराक्रम और सदाचार के द्वारा उनकी समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं था। वे इन्द्रतुल्य तेजस्वी, धर्मात्मा और कठोर व्रत का पालन करने वाले थे। राजन! उनके लिये वाहन, योद्धा, नाना प्रकार के मित्र तथा श्रेष्ठ और सब प्रकार की बहुमूल्य शय्याएँ चिन्तन करने से और मुखजनित वायु से ही प्रकट हो जाती थीं। राजा करन्धम ने अपन गुणों से समस्त राजाओं को अपने वश में कर लिया था। कहते हैं राजा करन्धम अभीष्ट काल तक इस संसार में जीवन धारण करके अन्त में सशरीर स्वर्गलोक को चले गये थे। उनके पुत्र अविक्षित ययाति के समान धर्मज्ञ थे। उन्होंने अपने पराक्रम ओर गुणों के द्वारा शत्रुओं पर विजय पाकर सारी पृथ्वी को अपने वश में कर लिया था। वे राजा अपनी प्रजा के लिये पिता के समान थे। अविक्षित के पुत्र का नाम मरुत्त था, जो इन्द्र के समान पराक्रमी थे। समुद्ररूपी वस्त्र से आच्छादित हुई यह सारी पृथ्वी- समस्त भूमण्डल की प्रजा उनमें अनुराग रखती थी।

इन्द्र की प्रेरणा से बृहस्पति जी का मनुष्य को यज्ञ न कराने की प्रतिज्ञा करना

पाण्डुनन्दन! राजा मरुतत सदा देवराज इन्द्र से स्पर्धा रखते थे ओर इन्द्र भी मरुत्त के साथ स्पर्धा रखते थे। पृथ्वी पति मरूत्त पवित्र एवं गुणवान थे। इन्द्र उनसे बढ़ने के लिये सदा प्रयत्न करते थे तो भी कभी बढ़ नहीं पाते थे। जब देवताओं सहित इन्द्र किसी तरह बढ़ न सके, तब बृहस्पति को बुलाकर उनसे इस प्रकार कहने लगे- ‘बृहस्पति जी! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो राजा मरुत्त का यज्ञ तथा श्राद्ध कर्म किसी तरह न करायेगा। ‘बृहस्पते! एकमात्र मैं ही तीनों लोकों का स्वामी और देवताओं का इन्द्र हूँ। मरुत्त तो केवल पृथ्वी के राजा हैं। ‘ब्रह्मन! आप अमर देवराज का यज्ञ कराकर देवेन्द्र के पुरोहित होकर मरणधार्म मरुत्त का यज्ञ कैसे नि:शंक होकर करायेगा। ‘आपका कल्याण हो। आप मुझे अपना यजमान बनाइये अथवा पृथ्वी पति मरुत्त को। या तो मुझे छाड़िये या मरुत्त को छोड़कर चुपचाप मेरा आश्रय लीजिये’।[1]

‘आपका कल्याण हो। आप मुझे अपना यजमान बनाइये अथवा पृथ्वी पति मरुत्त को। या तो मुझे छाड़िये या मरुत्त को छोड़कर चुपचाप मेरा आश्रय लीजिये’। कुरुनन्दन! देवराज इन्द्र के ऐसा कहने पर बृहस्पति ने दो घड़ी तक सोच-विचारकर उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया- ‘देवराज! तुम सम्पूर्ण जीवों के स्वामी हो, तुम्हारे ही आधार पर समस्त लोक टिके हुए हैं। तुम नमुचि, विश्वरूप और बलासुर के विनाशक हो। ‘बलसूदन! तुम अद्वितीय वीर हो। तुमने उत्तम सम्पत्ति प्रप्त की है। तुम पृथ्वी और स्वर्ग दोनों का भरण-पोषण एवं संरक्षण करते हो। ‘देवेश्वर! पाकशासन! तुम्हारी पुरोहिती करके मैं मरणधर्मा मरुत्त का यज्ञ कैसे करा सकता हूँ। ‘देवेन्द्र! धैर्य धारण करो। अब मैं भी कभी किसी मनुष्य के यज्ञ में जाकर स्त्रुवा हाथ में नहीं लूगाँ। इसके सिवा मेरी यह बात भी ध्यान से सुन लो। ‘आग चाहे ठण्डी हो जाय, पृथ्वी उलट जाय और सूर्यदेव प्रकाश करना छोड़ दें, किंतु मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा नहीं टल सकती’। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! बृहस्पति जी की बात सुनकर इन्द्र का मात्सर्य दूर हो गया और तब वे उनकी प्रशंसा करके अपने घर में चले गये।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-21
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 5 श्लोक 22-28

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