उलूपी द्वारा अर्जुन की पराजय का रहस्य बताना

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 81 में उलूपी द्वारा अर्जुन की पराजय का रहस्य बताने का वर्णन हुआ है।[1]

अर्जुन-उलूपी संवाद

अर्जुन बोले– कौरव्‍य नाग के कुल को आनन्‍दित करने वाली उलूपी! इस रणभूमि में तुम्‍हारे और मणिपुर नरेश बभ्रुवाहन की माता चित्रांगदा के आने का क्‍या कारण है ? नागकुमारी! तुम इस राजा बभ्रुवाहन का कुशल– मंगल तो चाहती हो न ? चंचल कटाक्षवाली सुन्‍दरी! तुम मेरे कल्‍याण की भी इच्‍छा रखती हो न ? स्‍थूल नितम्‍बवाली प्रियदर्शने! मैंने या इस बभ्रुवाहन ने अनजान मं तुम्‍हारा कोई अप्रिय तो नहीं किया है ? तुम्‍हारी सौत चित्रवाहनकुमारी वरारोहा राजपुत्री चित्रांगदा ने तो तुम्‍हारा कोई अपराध नहीं किया है ? अर्जुन का यह प्रश्‍न सुनकर नागराजकन्‍या उलूपी हंसती हुई–सी बोली– प्राणवल्‍लभ! आपने या बभ्रुवाहन ने मेरा कोई आपराध नहीं किया है।

उलूपी द्वारा अर्जुन की पराजय का रहस्य बताना

बभ्रुवाहन की माता ने भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा है। यह तो सदा दासी की भाँति मेरी आज्ञा के अधीन रहती है। यहाँ आकर मैंने जो–जो जिस प्रकार काम किया है, वह बतलाती हूँ; सुनिये। प्रभो! कुरुनन्‍दन! पहले तो मैं आपके चरणों में सिर रखकर आपको प्रसन्‍न करना चाहती हूँ। यदि मुझसे कोई दोष बन गया हो तो भी उसके लिये आप मुझ पर क्रोध न करें; क्‍योंकि मैंने जो कुछ किया है, वह आपकी प्रसन्‍नता के लिये ही किया है। महाबाहु धनंजय! आप मेरी कही हुई सारी बातें ध्‍यान देकर सुनिये। पार्थ! महाभारत– युद्ध में आपने जो शान्‍तकुमार महाराज को भीष्‍म को अधर्म पर्वक मारा है, उस पाप का यह प्रायश्‍चित कर दिया गया। वीर! आपे अपने साथ जूझते हुए भीष्‍म जी को नहीं मारा है, वे शिखण्‍डी की आड़ लेकर आपने उनका वध किया था। उसकी शान्‍ति किये बिना ही यदि आप प्राणों का परित्‍याग करते तो उस पापकर्म के प्रभाव से निश्‍चय ही नरक में पड़ते।

महामते! पृथ्‍वीपाल! पूर्वकाल में वसुओं तथा गंगाजी ने इसी रूप में उस पाप की शान्‍ति निश्‍चित की थी; जिसे आप अपने पुत्र से पराजय के रूप में प्राप्‍त किया है। पहले की बात है, एक दिन मैं गंगाजी के तट पर गयी थी। नरेश्‍वर! वहाँ शान्‍तनु नन्‍दन भीष्‍म जी के मारे जाने के बाद वसुओं ने गंगा तट पर आकर आपके सम्‍बन्‍ध में जो यह बात कही थी, उसे मैंने अपने कानों सुना था। वसु नामक देवता महानदी गंगा के तट पर एकत्र हो स्‍नान करके भागीरथी की सम्‍मति से यह भयानक वचन बोले- भाविनी! ये शान्‍तनु नन्‍दन भीष्‍म संग्राम में दूसरे के साथ उलझे हुए थे। अर्जुन के साथ युद्ध नहीं कर रहे थे तो भी सव्‍यवाची अर्जुन ने इनका वध किया है। इस अपराध के कारण हम लोग आज अर्जुन को शाप देना चाहते हैं। यह सुनकर गंगा जी ने कहा – हाँ ऐसा ही होना चाहिये। अर्जुन अपने पुत्र बभ्रुवाहन को छाती से लगा रहे है उनकी बातें सुनकर मेरी सारी इन्‍द्रियाँ व्‍यथित हो उठीं और पाताल में प्रवेश करके मैंने अपने पिता से यह समाचार कह सुनाया। यह सुनकर पिता जी को भी बड़ा खेद हुआ।[1] वे तत्‍काल वसुओं के पास जाकर उन्‍हें बारंबार प्रसन्‍न करके आप के लिये उनसे बारंबार क्षमा– याचना करने लगे। तब वसुगण उनसे इस प्रकार बोले- महाभाग नागराज! मणिपुर का नवयुवक राजा बभ्रुवाहन अर्जुन का पुत्र है। वह युद्ध–भूमि में खड़ा होकर अपने बाणों द्वारा जब उन्‍हें पृथ्‍वी पर गिरा देगा, तब अर्जुन हमारे शाप से मुक्‍त हो जायंगे। अच्‍छा अब जाओ वसुओं के ऐसा कहने पर मेरे पिता ने आकर मुझसे यह बात बतायी। इसे सुनकर मैंने इसी के अनुसार चेष्‍टा की है और आपको उस शाप से छुटकारा दिलाया है। प्राणनाथ! देवराज इन्‍द्र भी आपको युद्ध में परास्‍त नहीं कर सकते, पुत्र तो अपना आत्‍मा ही है, इसीलियं इसके हाथ से यहाँ आपकी पराजय हुई है। प्रभो! मैं समझती हूँ कि इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। अथवा आपकी क्‍या धारणा है ? क्‍या यह युद्ध कराकर मैंने कोई अपराध किया है ?[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 81 श्लोक 1-15
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 81 श्लोक 16-32

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