- महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 17 में सिद्ध महात्मा द्वारा जीव की विविध गतियों का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
काश्यप का प्रस्न
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- तदनन्तर धर्मात्माताओं में श्रेष्ठ काश्यप ने उन सिद्ध महात्मा के दोनों पैर पकड़कर जिनका उत्तर कठिनाई से दिया जा सके, ऐसे बहुत धर्मयुक्त प्रश्न पूछे। काश्यप ने पूछा- महात्मन! यह शरीर किस प्रकार गिर जाता है? फिर दूसरा शरीर कैसे प्राप्त होता है? संसारी जीव किस तरह इस दु:खमय संसार से मुक्त होता है? जीवात्मा प्रकृति (मूल विद्या) और उससे उत्पन्न होने वाले शरीर कैसे त्याग करता है? और शरीर से छूटकर दूसरे में वह किस प्रकार प्रवेश करता है? मनुष्य अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मो का फल कैसे भोगता है और शरीर न रहने पर उसके कर्म कहाँ रहता है?
सिद्ध महात्मा द्वारा जीव की विविध गतियों का वर्णन
ब्राह्मण कहते हैं- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! काश्यप के इस प्रकार पूछने पर सिद्ध महात्मा उनके प्रश्नों का क्रमश: उत्तर देना आरम्भ किया। वह मैं बता रहा हूँ, सुनिये। सिद्ध ने कहा- काश्यप! मनुष्य इस लोक में आयु और कीर्ति को बढ़ाने वाले जिन कर्मो का सेवन करता है, वे शरीर-प्राप्ति में कारण होते हैं। शरीर-ग्रहण के अनन्तर जब वे सभी कर्म अपना फल देकर क्षीण हो जाते हे, उस समय जीव की आयु का भी क्षय हो जाता है। उस अवस्था वह विपरीत कर्मो का सेवन करने लगता है और विनाशकाल निकट आने पर उसकी बुद्धि उलटी हो जाती है। वह अपने सत्त्व (धैर्य), बल और अनुकुल समय को जानकारी भी मन पर अधिकार न होने के कारण असमय में तथा अपनी प्रकृति के विरुद्ध भोजन करता है। अत्यन्त हानि पहुँचाने वाली जितनी वस्तुएँ है, उन सबका वह सेवन करता है। कभी तो बहुत अधिक खा लेता है, कभी बिल्कुल ही भोजन नहीं करता है। कभी दूषित खाद्य अन्न-पान भी ग्रहण लेता है, कभी एक-दूसरे से विरुद्ध गुणवालें पदार्थो को एक साथ खा लेता है। किसी दिन गरिष्ठ अन्न और वह भी बहुत अधिक मात्रा में खा जाता है। कभी-कभी एक बार का खाया हुआ अन्न पचने भी नहीं पाता कि दुबारा भोजन कर लेता है। अधिक मात्र में व्यायाम और स्त्री-सम्भोग करता है। सदा काम करने के लोभ से मल-मूत्र के वेग को रोके रहता है। रसीला अन्न खाता और दिन में सोता है तथा कभी-कभी खाये हुए अन्न के पचने के पहले असमय में भोजन करके स्वयं ही अपने शरीर में स्थित वात-पित्त आदि दोषों को कुपित कर देता है। उन दोषों के कुपित होने से वह अपने लिये प्राणनाशक रोगों को बुला लेता है। अथवा फाँसी लगाने या जल में डूबने आदि शास्त्र विरुद्ध उपायों का आश्रय लेता है। इन्हीं सब कारणों से जीवन का शरीर नष्ट हो जाता है। इस प्रकार जो जीव का जीवन बताया जाता है, उसे अच्छी तरह समझ लो। शरीर में तीव्र वायु से प्रेरित हो पित्त का प्रकोप बढ़ जाता है और वह शरीर में फैलकर समस्त प्राणों की गति को रोक देता है। इस शरीर में कुपित होकर अत्यन्त प्रबल हुआ पित्त जीव के मर्मस्थानों को विदीर्ण कर देता है। इस बात को ठीक समझों। जब मर्मस्थान छिन्न-भिन्न होने लगते है, तब वेदना से व्यथित हुआ जीवन तत्काल इस जड शरीर से निकल जाता है। उस शरीर को सदा के लिये त्याग देता हे।[1] द्विजश्रेष्ठ! मृत्युकाल में जीव का तन-मन वेदना से व्यथित होता हे, इस बात को भलीभाँति जान लो। इस तरह संसार के सभी प्राणी सदा जन्म और मरण से उद्विग्न रहता है। विप्रवर! सभी जीव अपने शरीरों का त्याग करते देखे जाते हैं। गर्भ में मनुष्य प्रवेश करते समय तथा गर्भ से नीचे गिरते समय भी वैसी ही वेदना का अनुभव करता है। मृत्यु काल में जीवों के शरीर की सन्धियाँ टूटने लगती हैं और जन्म के समय वह गर्भस्थ जल से भीगकर अत्यन्त व्याकुल हा उठाता है। अन्य प्रकार की तीव्र वायु से प्रेरित हो शरीर में सर्दी से कुपित हुई जो वायु पाँचों भूतों में प्राण और अपान के स्थान में स्थित है, वही पंचभूतों के संघात का नाश करती है तथा वह देहधारियों को बड़े कष्ट से त्यागकर ऊर्ध्वलोक को चली जाती है। इस प्रकार जब जीव शरीर का त्याग करता है, तब प्राणियों का शरीद उच्छ्वास हीन दिखायी देता है। उसमें गर्मी, उच्छ्वास, शोभा और चेतना कुंछ भी नहीं रह जाती। इस तरह जीवाम्ता से परित्यक्त उस शरीर को लोग मृत (मरा हुआ) कहते है।[2]
देहधारी जीव जिन इन्द्रियों के द्वारा रूप, रस आदि विषयों का अनुभव करता है, उनके द्वारा वह भोजन से परिपुष्ट होन वाले प्राणों को नहीं जान पाता। इस शरीर के भीतर रहकर जो कार्य करता है, वह सनातन जीव है। कहीं-कहीं संधिस्थानों में जो-जो अंग संयुक्त होता है, उस-उस को तुम मर्म समझो, क्योंकि शास्त्र में मर्मस्थान का ऐसा ही लक्षण देखा गया है। उन मर्मस्थानों (संधियों)-के विलग होने पर वायु ऊपर को उठती हुई प्राण के हृदय में प्रविष्ट हो शीघ्र ही उसकी बुद्धि को अवरुद्ध कर लेती है। तब अन्तकाल उपस्थित होने पर प्राणी सचेतन होने पर भी कुछ समझ नहीं पाता, क्योंकि तुम (अविद्या)- के द्वारा उसकी ज्ञानशक्ति आवृत्त हो जाती है। मर्मस्थान भी अवरुद्ध हो जाते है। उस समय जीव के लिये कोई आधार नहीं रह जाता है और वायु उसे अपने स्थान से विचलित कर देती है। तब वह जीवात्मा बारंबार भंयकर एवं लंबी साँस छोड़कर बाहर निकलने लगता है। उस समय सहसा इस जड शरीर को कम्पि कर देता है। शरीर से अलग होने पर वह जीव अपने किये हुए शुभ कार्य पुण्य अथवा अशुभ कार्य पाप कर्मो द्वारा सब ओर से घिरा रहता है। जिन्होंने वेद-शास्त्रों के सिद्धांर्तो का यथावत अध्ययन किया है, वे ज्ञान सम्पन्न ब्राह्मण लक्षणों के द्वारा यह जान लेते हैं कि अमुक जीव पुण्यात्मा रहा है। अमुक जीव पापी। जिस तरह आँख वाले मनुष्य अंधेरे में इधर-उधर उगते-बुझते हुए खद्योत को देखते हैं, उसी प्रकार ज्ञान-नेत्र वाले सिद्ध पुरुष अपनी दिव्य दृष्टि से जन्मते, मरते तथा गर्भ में प्रवेश करते हुए जीव को सदा देखते रहते हैं। शास्त्र के अनुसार जीव के तीन प्रकार के स्थान देखे गये हैं (मृत्युलोक, स्वर्गलोक और नरक)। यह मृत्युलोक की भूमि जहाँ बहुत से प्राणी रहते हैं, कर्मभूमि कहलाती है। अत: यहाँ शुभ और अशुभ कर्म करके सब मनुष्य उसके फलस्वरूप अपने कर्मो के अनुसार अच्छे-बुरे भोग प्राप्त करते हैं।[2] यहीं पाप करने वाले मानव अपने कर्मों के अनुसार नरक में पड़ेते हैं। यह जीव की अधोगति है जो घोर कष्ट देने वाली है। इसमें पड़कर पापी मनुष्य नरकाग्रि में पकाये जाते हैं। उससे छुटकारा मिलना बहुत कठिन है। अत: (पापकर्म से दर रहकर) अपने को नकर से बचाये रखने का विशेष प्रयत्न करना चाहिये। स्वर्ग आदि ऊर्ध्वलोकों में जाकर प्राणी जिन स्थानों में निवास करते हैं, उनका यहाँ वर्णन किया जाता है, इस विषय को यथार्थ रूप से मुझ से सुनो। इसको सुनने से तुम्हें कर्मों की गति का निश्चय हो जायगा और नैष्ठि की बुद्धि प्राप्त होगी। जहाँ ये समस्त तारे हैं, जहाँ वह चन्द्रमण्डल प्रकाशित होता है और जहाँ सूर्यमण्डल जगत में अपनी प्रभा से उद्भासित हो रहा है, ये सब-के-सब पुण्यकर्म पुरुषों के स्थान हैं, ऐसा जाना[3] जब जीवों के पुण्यकर्मों का भोग समाप्त हो जाता है, तब वे वहाँ से नीचे गिरते हैं। इस प्रकार बारंबार उनका आवागमन होता रहता है। स्वर्ग में भी उत्तम, मध्यम और अधम का भेद रहता है। वहाँ भी दूसरों का अपने से बहुत अधिक दीप्तिमान तेज एवं ऐश्वर्य देखकर मन में संतोष नहीं होता है। इस प्रकार जीव की इन सभी गतियों का मैंने तुम्हारे समक्ष पृथक-पृथक वर्णन किया है। अब मैं यह बतलाऊँगा कि जीव किस प्रकार गर्भ में आकर जन्म धारण करता है। ब्रह्मन! तुम एकाग्रचित्त होकर मेरे मुख से इस विषय का वर्णन सुनो।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-17
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 17 श्लोक 18-35
- ↑ पुण्यात्मा मनुष्य उन्हीं लोकों में जाकर अपने पुणयों का फल भोगते हैं
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 17 श्लोक 36-42
संबंधित लेख
महाभारत आश्वमेधिक पर्व में उल्लेखित कथाएँ
अश्वमेध पर्व
युधिष्ठिर का शोकमग्न होकर गिरना और धृतराष्ट्र का उन्हें समझाना
| श्रीकृष्ण और व्यास का युधिष्ठिर को समझाना
| व्यास का युधिष्ठिर से संवर्त और मरुत्त का प्रसंग कहना
| व्यास द्वारा मरुत्त के पूर्वजों का वर्णन
| बृहस्पति का मनुष्य को यज्ञ न कराने की प्रतिज्ञा करना
| नारद की आज्ञा से मरुत्त की संवर्त से भेंट
| मरुत्त के आग्रह पर संवर्त का यज्ञ कराने की स्वीकृति देना
| संवर्त का मरुत्त को सुवर्ण की प्राप्ति के लिए महादेव की नाममयी स्तुति का उपदेश
| मरुत्त की सम्पत्ति से बृहस्पति का चिन्तित होना
| बृहस्पति का इन्द्र से अपनी चिन्ता का कारण बताना
| इन्द्र की आज्ञा से अग्निदेव का मरुत्त के पास संदेश लेकर जाना
| अग्निदेव का संवर्त के भय से लौटना और इन्द्र से ब्रह्मबल की श्रेष्ठता बताना
| इन्द्र का गन्धर्वराज को भेजकर मरुत्त को भय दिखाना
| संवर्त का मन्त्रबल से देवताओं को बुलाना और मरुत्त का यज्ञ पूर्ण करना
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को इन्द्र द्वारा शरीरस्थ वृत्रासुर संहार का इतिहास सुनाना
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को मन पर विजय पाने का आदेश
| श्रीकृष्ण द्वारा ममता के त्याग का महत्त्व
| श्रीकृष्ण द्वारा कामगीता का उल्लेख तथा युधिष्ठिर को यज्ञ हेतु प्रेरणा
| युधिष्ठिर द्वारा ऋषियों की विदाई और हस्तिनापुर में प्रवेश
| युधिष्ठिर के धर्मराज्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण का अर्जुन से द्वारका जाने का प्रस्ताव
अनुगीता पर्व
अर्जुन का श्रीकृष्ण से गीता का विषय पूछना
| श्रीकृष्ण का अर्जुन से सिद्ध, महर्षि तथा काश्यप का संवाद सुनाना
| सिद्ध महात्मा द्वारा जीव की विविध गतियों का वर्णन
| जीव के गर्भ-प्रवेश का वर्णन
| आचार-धर्म, कर्म-फल की अनिवार्यता का वर्णन
| संसार से तरने के उपाय का वर्णन
| गुरु-शिष्य के संवाद में मोक्ष प्राप्ति के उपाय का वर्णन
| ब्राह्मणगीता, एक ब्राह्मण का पत्नी से ज्ञानयज्ञ का उपदेश करना
| दस होताओं से सम्पन्न होने वाले यज्ञ का वर्णन
| मन और वाणी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मन-बुद्धि और इन्द्रियरूप सप्त होताओं का वर्णन
| यज्ञ तथा मन-इन्द्रिय संवाद का वर्णन
| प्राण, अपान आदि का संवाद और ब्रह्मा का सबकी श्रेष्ठता बताना
| नारद और देवमत का संवाद एवं उदान के उत्कृष्ट रूप का वर्णन
| चातुर्होम यज्ञ का वर्णन
| अन्तर्यामी की प्रधानता
| अध्यात्म विषयक महान वन का वर्णन
| ज्ञानी पुरुष की स्थिति तथा अध्वर्यु और यति का संवाद
| परशुराम के द्वारा क्षत्रिय कुल का संहार
| अलर्क के ध्यानयोग का उदाहरण देकर पितामहों का परशुराम को समझाना
| परशुराम का तपस्या के द्वारा सिद्धि प्राप्त करना
| राजा अम्बरीष की गायी हुई आध्यात्मिक स्वराज्यविषयक गाथा
| ब्राह्मणरूपधारी धर्म और जनक का ममत्वत्याग विषयक संवाद
| ब्राह्मण का पत्नी के प्रति अपने ज्ञाननिष्ठ स्वरूप का परिचय देना
| श्रीकृष्ण द्वारा ब्राह्मणगीता का उपसंहार
| गुरु-शिष्य संवाद में ब्रह्मा और महर्षियों के प्रश्नोत्तर
| ब्रह्मा के द्वारा तमोगुण, उसके कार्य और फल का वर्णन
| रजोगुण के कार्य का वर्णन और उसके जानने का फल
| सत्त्वगुण के कार्य का वर्णन और उसके जानने का फल
| सत्त्व आदि गुणों का और प्रकृति के नामों का वर्णन
| महत्तत्त्व के नाम और परमात्मतत्त्व को जानने की महिमा
| अहंकार की उत्पत्ति और उसके स्वरूप का वर्णन
| अहंकार से पंच महाभूतों और इन्द्रियों की सृष्टि
| अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवत का वर्णन
| निवृत्तिमार्ग का उपदेश
| चराचर प्राणियों के अधिपतियों का वर्णन
| धर्म आदि के लक्षणों का और विषयों की अनुभूति के साधनों का वर्णन
| क्षेत्रज की विलक्षणता
| सब पदार्थों के आदि-अन्त का और ज्ञान की नित्यता का वर्णन
| देहरूपी कालचक्र का तथा गृहस्थ और ब्राह्मण के धर्म का कथन
| ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी के धर्म का वर्णन
| मुक्ति के साधनों का, देहरूपी वृक्ष का तथा ज्ञान-खंग से उसे काटने का वर्णन
| आत्मा और परमात्मा के स्वरूप का विवेचन
| धर्म का निर्णय जानने के लिए ऋषियों का प्रश्न
| ब्रह्मा द्वारा सत्त्व और पुरुष की भिन्नता का वर्णन
| ब्रह्मा द्वारा बुद्धिमान की प्रशंसा
| पंचभूतों के गुणों का विस्तार और परमात्मा की श्रेष्ठता का वर्णन
| तपस्या का प्रभाव
| आत्मा का स्वरूप और उसके ज्ञान की महिमा
| अनुगीता का उपसंहार
| श्रीकृष्ण का अर्जुन के साथ हस्तिनापुर जाना
| श्रीकृष्ण का सुभद्रा के साथ द्वारका को प्रस्थान
| कौरवों के विनाश से उत्तंक मुनि का कुपित होना
| श्रीकृष्ण का क्रोधित उत्तंक मुनि को शांत करना
| श्रीकृष्ण का उत्तंक से अध्यात्मतत्त्व का वर्णन
| श्रीकृष्ण का उत्तंक मुनि को कौरवों के विनाश का कारण बताना
| श्रीकृष्ण का उत्तंक मुनि को विश्वस्वरूप का दर्शन कराना
| श्रीकृष्ण द्वारा उत्तंक मुनि को मरुदेश में जल प्राप्ति का वरदान
| उत्तंक की गुरुभक्ति का वर्णन
| उत्तंक का गुरुपुत्री के साथ विवाह
| उत्तंक का दिव्यकुण्डल लाने के लिए सौदास के पास जाना
| उत्तंक का सौदास से उनकी रानी के कुण्डल माँगना
| उत्तंक का कुण्डल हेतु रानी मदयन्ती के पास जाना
| उत्तंक का कुण्डल लेकर पुन: सौदास के पास लौटना
| तक्षक द्वारा कुण्डलों का अपहरण
| उत्तंक को पुन: कुण्डलों की प्राप्ति
| श्रीकृष्ण का द्वारका में रैवतक महोत्सव में सम्मिलित होकर सबसे मिलना
| श्रीकृष्ण का वसुदेव को महाभारत युद्ध का वृत्तान्त संक्षेप में सुनाना
| श्रीकृष्ण का वसुदेव को अभिमन्यु वध का वृत्तांत सुनाना
| वसुदेव आदि यादवों का अभिमन्यु के निमित्त श्राद्ध करना
| व्यास का उत्तरा और अर्जुन को समझाकर युधिष्ठिर को अश्वमेध यज्ञ की आज्ञा देना
| युधिष्ठिर का भाइयों से परामर्श तथा धन लाने हेतु प्रस्थान
| पांडवों का हिमालय पर पड़ाव और उपवासपूर्वक रात्रि निवास
| शिव आदि का पूजन करके युधिष्ठिर का धनराशि को ले जाना
| उत्तरा के मृत बालक को जिलाने के लिए कुन्ती की श्रीकृष्ण से प्रार्थना
| परीक्षित को जिलाने के लिए सुभद्रा की श्रीकृष्ण से प्रार्थना
| उत्तरा की श्रीकृष्ण से पुत्र को जीवित करने की प्रार्थना
| श्रीकृष्ण का उत्तरा के मृत बालक को जीवन दान देना
| श्रीकृष्ण द्वारा परीक्षित का नामकरण तथा पाण्डवों का हस्तिनापुर आगमन
| श्रीकृष्ण द्वारा पांडवों का स्वागत
| व्यास तथा श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को यज्ञ के लिए आज्ञा देना
| व्यास की आज्ञा से अश्व की रक्षा हेतु अर्जुन की नियुक्ति
| व्यास द्वारा भीम, नकुल तथा सहदेव की विभिन्न कार्यों हेतु नियुक्ति
| सेना सहित अर्जुन के द्वारा अश्व का अनुसरण
| अर्जुन के द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
| अर्जुन का प्राग्ज्यौतिषपुर के राजा वज्रदत्त के साथ युद्ध
| अर्जुन के द्वारा वज्रदत्त की पराजय
| अर्जुन का सैन्धवों के साथ युद्ध
| दु:शला के अनुरोध से अर्जुन और सैन्धवों के युद्ध की समाप्ति
| अर्जुन और बभ्रुवाहन का युद्ध एवं अर्जुन की मृत्यु
| अर्जुन की मृत्यु से चित्रांगदा का विलाप
| अर्जुन की मृत्यु पर बभ्रुवाहन का शोकोद्गार
| उलूपी का संजीवनी मणि द्वारा अर्जुन को पुन: जीवित करना
| उलूपी द्वारा अर्जुन की पराजय का रहस्य बताना
| अर्जुन का पुत्र और पत्नी से विदा लेकर पुन: अश्व के पीछे जाना
| अर्जुन द्वारा मगधराज मेघसन्धि की पराजय
| अश्व का द्वारका, पंचनद तथा गांधार देश में प्रवेश
| अर्जुन द्वारा शकुनिपुत्र की पराजय
| युधिष्ठिर की आज्ञा से यज्ञभूमि की तैयारी
| युधिष्ठिर के यज्ञ की सजावट और आयोजन
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर से अर्जुन का संदेश कहना
| अर्जुन के विषय में श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर की बातचीत
| अर्जुन का हस्तिनापुर आगमन
| उलूपी और चित्रांगदा सहित बभ्रुवाहन का स्वागत
| अश्वमेध यज्ञ का आरम्भ
| युधिष्ठिर का ब्राह्मणों और राजाओं को विदा करना
| युधिष्ठिर के यज्ञ में नेवले का आगमन
| नेवले का सेरभर सत्तूदान को अश्वमेध यज्ञ से बढ़कर बताना
| हिंसामिश्रित यज्ञ और धर्म की निन्दा
| महर्षि अगस्त्य के यज्ञ की कथा
वैष्णवधर्म पर्व
युधिष्ठिर का श्रीकृष्ण से वैष्णवधर्म विषयक प्रश्न
| श्रीकृष्ण द्वारा धर्म का तथा अपनी महिमा का वर्णन
| चारों वर्णों के कर्म और उनके फलों का वर्णन
| धर्म की वृद्धि और पाप के क्षय होने का उपाय
| व्यर्थ जन्म, दान और जीवन का वर्णन
| सात्त्विक दानों का लक्षण
| दान का योग्य पात्र
| ब्राह्मण की महिमा
| बीज और योनि की शुद्धि का वर्णन
| गायत्री मन्त्र जप की महिमा का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा और उनके तिरस्कार के भयानक फल का वर्णन
| यमलोक के मार्ग का कष्ट
| यमलोक के मार्ग-कष्ट से बचने के उपाय
| जल दान और अन्न दान का माहात्म्य
| अतिथि सत्कार का महात्म्य
| भूमि दान की महिमा
| तिल दान की महिमा
| उत्तम ब्राह्मण की महिमा
| अनेक प्रकार के दानों की महिमा
| पंचमहायज्ञ का वर्णन
| विधिवत स्नान और उसके अंगभूत कर्म का वर्णन
| भगवान के प्रिय पुष्पों का वर्णन
| भगवान के भगवद्भक्तों का वर्णन
| कपिला गौ तथा उसके दान का माहात्म्य
| कपिला गौ के दस भेद
| कपिला गौ का माहात्म्य
| कपिला गौ में देवताओं के निवासस्थान का वर्णन
| यज्ञ और श्राद्ध के अयोग्य ब्राह्मणों का वर्णन
| नरक में ले जाने वाले पापों का वर्णन
| स्वर्ग में ले जाने वाले पुण्यों का वर्णन
| ब्रह्महत्या के समान पाप का वर्णन
| जिनका अन्न वर्जनीय है, उन पापियों का वर्णन
| दान के फल और धर्म की प्रशंसा का वर्णन
| धर्म और शौच के लक्षण
| संन्यासी और अतिथि सत्कार के उपदेश
| दानपात्र ब्राह्मण का वर्णन
| अन्नदान की प्रशंसा
| भोजन की विधि
| गौओं को घास डालने का विधान
| तिल का माहात्म्य
| आपद्धर्म, श्रेष्ठ और निन्द्य ब्राह्मण
| श्राद्ध का उत्तम काल
| मानव धर्म-सार का वर्णन
| अग्नि के स्वरूप में अग्निहोत्र की विधि
| अग्निहोत्र के माहात्म्य का वर्णन
| चान्द्रायण व्रत की विधि
| प्रायश्चितरूप में चान्द्रायण व्रत का विधान
| सर्वहितकारी धर्म का वर्णन
| द्वादशी व्रत का माहात्म्य
| युधिष्ठिर के द्वारा भगवान की स्तुति
| विषुवयोग और ग्रहण आदि में दान की महिमा
| पीपल का महत्त्व
| तीर्थभूत गुणों की प्रशंसा
| उत्तम प्रायश्चित
| उत्तम और अधम ब्राह्मणों के लक्षण
| भक्त, गौ और पीपल की महिमा
| श्रीकृष्ण के उपदेश का उपसंहार
| श्रीकृष्ण का द्वारकागमन
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज