सिद्ध महात्मा द्वारा जीव की विविध गतियों का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 17 में सिद्ध महात्मा द्वारा जीव की विविध गतियों का वर्णन हुआ है।[1]

काश्यप का प्रस्न

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- तदनन्तर धर्मात्माताओं में श्रेष्ठ काश्यप ने उन सिद्ध महात्मा के दोनों पैर पकड़कर जिनका उत्तर कठिनाई से दिया जा सके, ऐसे बहुत धर्मयुक्त प्रश्न पूछे। काश्यप ने पूछा- महात्मन! यह शरीर किस प्रकार गिर जाता है? फिर दूसरा शरीर कैसे प्राप्त होता है? संसारी जीव किस तरह इस दु:खमय संसार से मुक्त होता है? जीवात्मा प्रकृति (मूल विद्या) और उससे उत्पन्न होने वाले शरीर कैसे त्याग करता है? और शरीर से छूटकर दूसरे में वह किस प्रकार प्रवेश करता है? मनुष्य अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मो का फल कैसे भोगता है और शरीर न रहने पर उसके कर्म कहाँ रहता है?

सिद्ध महात्मा द्वारा जीव की विविध गतियों का वर्णन

ब्राह्मण कहते हैं- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! काश्यप के इस प्रकार पूछने पर सिद्ध महात्मा उनके प्रश्नों का क्रमश: उत्तर देना आरम्भ किया। वह मैं बता रहा हूँ, सुनिये। सिद्ध ने कहा- काश्यप! मनुष्य इस लोक में आयु और कीर्ति को बढ़ाने वाले जिन कर्मो का सेवन करता है, वे शरीर-प्राप्ति में कारण होते हैं। शरीर-ग्रहण के अनन्तर जब वे सभी कर्म अपना फल देकर क्षीण हो जाते हे, उस समय जीव की आयु का भी क्षय हो जाता है। उस अवस्था वह विपरीत कर्मो का सेवन करने लगता है और विनाशकाल निकट आने पर उसकी बुद्धि उलटी हो जाती है। वह अपने सत्त्व (धैर्य), बल और अनुकुल समय को जानकारी भी मन पर अधिकार न होने के कारण असमय में तथा अपनी प्रकृति के विरुद्ध भोजन करता है। अत्यन्त हानि पहुँचाने वाली जितनी वस्तुएँ है, उन सबका वह सेवन करता है। कभी तो बहुत अधिक खा लेता है, कभी बिल्कुल ही भोजन नहीं करता है। कभी दूषित खाद्य अन्न-पान भी ग्रहण लेता है, कभी एक-दूसरे से विरुद्ध गुणवालें पदार्थो को एक साथ खा लेता है। किसी दिन गरिष्ठ अन्न और वह भी बहुत अधिक मात्रा में खा जाता है। कभी-कभी एक बार का खाया हुआ अन्न पचने भी नहीं पाता कि दुबारा भोजन कर लेता है। अधिक मात्र में व्यायाम और स्त्री-सम्भोग करता है। सदा काम करने के लोभ से मल-मूत्र के वेग को रोके रहता है। रसीला अन्न खाता और दिन में सोता है तथा कभी-कभी खाये हुए अन्न के पचने के पहले असमय में भोजन करके स्वयं ही अपने शरीर में स्थित वात-पित्त आदि दोषों को कुपित कर देता है। उन दोषों के कुपित होने से वह अपने लिये प्राणनाशक रोगों को बुला लेता है। अथवा फाँसी लगाने या जल में डूबने आदि शास्त्र विरुद्ध उपायों का आश्रय लेता है। इन्हीं सब कारणों से जीवन का शरीर नष्ट हो जाता है। इस प्रकार जो जीव का जीवन बताया जाता है, उसे अच्छी तरह समझ लो। शरीर में तीव्र वायु से प्रेरित हो पित्त का प्रकोप बढ़ जाता है और वह शरीर में फैलकर समस्त प्राणों की गति को रोक देता है। इस शरीर में कुपित होकर अत्यन्त प्रबल हुआ पित्त जीव के मर्मस्थानों को विदीर्ण कर देता है। इस बात को ठीक समझों। जब मर्मस्थान छिन्न-भिन्न होने लगते है, तब वेदना से व्यथित हुआ जीवन तत्काल इस जड शरीर से निकल जाता है। उस शरीर को सदा के लिये त्याग देता हे।[1] द्विजश्रेष्ठ! मृत्युकाल में जीव का तन-मन वेदना से व्यथित होता हे, इस बात को भलीभाँति जान लो। इस तरह संसार के सभी प्राणी सदा जन्म और मरण से उद्विग्न रहता है। विप्रवर! सभी जीव अपने शरीरों का त्याग करते देखे जाते हैं। गर्भ में मनुष्य प्रवेश करते समय तथा गर्भ से नीचे गिरते समय भी वैसी ही वेदना का अनुभव करता है। मृत्यु काल में जीवों के शरीर की सन्धियाँ टूटने लगती हैं और जन्म के समय वह गर्भस्थ जल से भीगकर अत्यन्त व्याकुल हा उठाता है। अन्य प्रकार की तीव्र वायु से प्रेरित हो शरीर में सर्दी से कुपित हुई जो वायु पाँचों भूतों में प्राण और अपान के स्थान में स्थित है, वही पंचभूतों के संघात का नाश करती है तथा वह देहधारियों को बड़े कष्ट से त्यागकर ऊर्ध्वलोक को चली जाती है। इस प्रकार जब जीव शरीर का त्याग करता है, तब प्राणियों का शरीद उच्छ्वास हीन दिखायी देता है। उसमें गर्मी, उच्छ्वास, शोभा और चेतना कुंछ भी नहीं रह जाती। इस तरह जीवाम्ता से परित्यक्त उस शरीर को लोग मृत (मरा हुआ) कहते है।[2]

देहधारी जीव जिन इन्द्रियों के द्वारा रूप, रस आदि विषयों का अनुभव करता है, उनके द्वारा वह भोजन से परिपुष्ट होन वाले प्राणों को नहीं जान पाता। इस शरीर के भीतर रहकर जो कार्य करता है, वह सनातन जीव है। कहीं-कहीं संधिस्थानों में जो-जो अंग संयुक्त होता है, उस-उस को तुम मर्म समझो, क्योंकि शास्त्र में मर्मस्थान का ऐसा ही लक्षण देखा गया है। उन मर्मस्थानों (संधियों)-के विलग होने पर वायु ऊपर को उठती हुई प्राण के हृदय में प्रविष्ट हो शीघ्र ही उसकी बुद्धि को अवरुद्ध कर लेती है। तब अन्तकाल उपस्थित होने पर प्राणी सचेतन होने पर भी कुछ समझ नहीं पाता, क्योंकि तुम (अविद्या)- के द्वारा उसकी ज्ञानशक्ति आवृत्त हो जाती है। मर्मस्थान भी अवरुद्ध हो जाते है। उस समय जीव के लिये कोई आधार नहीं रह जाता है और वायु उसे अपने स्थान से विचलित कर देती है। तब वह जीवात्मा बारंबार भंयकर एवं लंबी साँस छोड़कर बाहर निकलने लगता है। उस समय सहसा इस जड शरीर को कम्पि कर देता है। शरीर से अलग होने पर वह जीव अपने किये हुए शुभ कार्य पुण्य अथवा अशुभ कार्य पाप कर्मो द्वारा सब ओर से घिरा रहता है। जिन्होंने वेद-शास्त्रों के सिद्धांर्तो का यथावत अध्ययन किया है, वे ज्ञान सम्पन्न ब्राह्मण लक्षणों के द्वारा यह जान लेते हैं कि अमुक जीव पुण्यात्मा रहा है। अमुक जीव पापी। जिस तरह आँख वाले मनुष्य अंधेरे में इधर-उधर उगते-बुझते हुए खद्योत को देखते हैं, उसी प्रकार ज्ञान-नेत्र वाले सिद्ध पुरुष अपनी दिव्य दृष्टि से जन्मते, मरते तथा गर्भ में प्रवेश करते हुए जीव को सदा देखते रहते हैं। शास्त्र के अनुसार जीव के तीन प्रकार के स्थान देखे गये हैं (मृत्युलोक, स्वर्गलोक और नरक)। यह मृत्युलोक की भूमि जहाँ बहुत से प्राणी रहते हैं, कर्मभूमि कहलाती है। अत: यहाँ शुभ और अशुभ कर्म करके सब मनुष्य उसके फलस्वरूप अपने कर्मो के अनुसार अच्छे-बुरे भोग प्राप्त करते हैं।[2] यहीं पाप करने वाले मानव अपने कर्मों के अनुसार नरक में पड़ेते हैं। यह जीव की अधोगति है जो घोर कष्ट देने वाली है। इसमें पड़कर पापी मनुष्य नरकाग्रि में पकाये जाते हैं। उससे छुटकारा मिलना बहुत कठिन है। अत: (पापकर्म से दर रहकर) अपने को नकर से बचाये रखने का विशेष प्रयत्न करना चाहिये। स्वर्ग आदि ऊर्ध्वलोकों में जाकर प्राणी जिन स्थानों में निवास करते हैं, उनका यहाँ वर्णन किया जाता है, इस विषय को यथार्थ रूप से मुझ से सुनो। इसको सुनने से तुम्हें कर्मों की गति का निश्चय हो जायगा और नैष्ठि की बुद्धि प्राप्त होगी। जहाँ ये समस्त तारे हैं, जहाँ वह चन्द्रमण्डल प्रकाशित होता है और जहाँ सूर्यमण्डल जगत में अपनी प्रभा से उद्भासित हो रहा है, ये सब-के-सब पुण्यकर्म पुरुषों के स्थान हैं, ऐसा जाना[3] जब जीवों के पुण्यकर्मों का भोग समाप्त हो जाता है, तब वे वहाँ से नीचे गिरते हैं। इस प्रकार बारंबार उनका आवागमन होता रहता है। स्वर्ग में भी उत्तम, मध्यम और अधम का भेद रहता है। वहाँ भी दूसरों का अपने से बहुत अधिक दीप्तिमान तेज एवं ऐश्वर्य देखकर मन में संतोष नहीं होता है। इस प्रकार जीव की इन सभी गतियों का मैंने तुम्हारे समक्ष पृथक-पृथक वर्णन किया है। अब मैं यह बतलाऊँगा कि जीव किस प्रकार गर्भ में आकर जन्म धारण करता है। ब्रह्मन! तुम एकाग्रचित्त होकर मेरे मुख से इस विषय का वर्णन सुनो।[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-17
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 17 श्लोक 18-35
  3. पुण्यात्मा मनुष्य उन्हीं लोकों में जाकर अपने पुणयों का फल भोगते हैं
  4. महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 17 श्लोक 36-42

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