आपद्धर्म, श्रेष्ठ और निन्द्य ब्राह्मण

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में आपद्धर्म, श्रेष्ठ और निन्द्य ब्राह्मण का वर्णन हुआ है।[1]

कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद

युधिष्ठिर ने कहा- भगवन! आपकी कृपा से मैंने सब धर्मों के संग्रह का एवं भोजन के योग्‍य और भोजन के अयोग्‍य अन्‍न का विषय भी सुन लिया। अब कृपा करके आपद्धर्म का वर्णन कीजिये।

श्रीभगवान बोले– राजन्! जब देश में अकाल पड़ा हो, राष्‍ट्र के ऊपर कोई आपत्ति आयी हो, जन्‍म या मृत्‍यु का सूतक हो तथा कड़ी धूप में रास्‍ता चलना पड़ा हो और इन सब कारणों से नियम का निर्वाह न हो सके तथा दूर का मार्ग तै करने के कारण विशेष थकावट आ गयी हो, उस अवस्‍था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍य के न मिलने पर शूद्र से भी जीवन-निर्वाह के लिये थोड़ा-सा कच्‍चा अन्‍न लिया जा सकता है। रोगी, दुखी, पीड़ित और भूखा ब्राह्मण यदि विधि-विधान के बिना भोजन कर ले तो भी उसे प्रायश्‍चित नहीं लगता। जल, मूल, घी, दूध, हवि, ब्राह्मण की इच्‍छा पूर्ण करना, गुरु की आज्ञा का पालन और ओषधि- इन आठों के सेवन से व्रत का भंग नहीं होता। जो मनुष्‍य विधिपूर्वक प्रायश्‍चित करने में असमर्थ हो, वह विद्वानों के वचन से तथा दान के द्वारा भी शुद्ध हो सकता है। परदेश में रहने वाला पुरुष यदि कुछ काल के लिये घर आवे तो वह ऋतुकाल में तथा उससे भिन्‍न समय में भी, रात या दिन में भी अपनी स्‍त्री के साथ समागम करने पर प्रायश्‍चित का भागी नहीं होता।

युधिष्ठिर ने पूछा- उत्तम व्रत का पालन करने वाले देवेश्‍वर! कैसे ब्राह्मण प्रशंसा के योग्‍य होते हैं और कैसे निन्‍दा के योग्‍य? तथा अष्‍टका-श्राद्ध का कौन-सा समय है? यह मुझे बताइये।

श्रीभगवान ने कहा- राजन! उत्तम कुल में उत्‍पन्‍न, शास्‍त्रोक्‍त कर्मों का अनुष्‍ठान करने वाले, विद्वान, दयालु, श्रीसम्‍पन्‍न, सरल और सत्‍यवादी- ये सभी ब्राह्मण सुपात्र (प्रशंसा के योग्‍य) माने जाते हैं। ये आगे के आसन पर बैठकर सबसे पहले भोजन करने के अधिकारी हैं तथा उस पंक्‍ति में जितने लोग बैठे होते हैं, उन सबको ये अपने दर्शन मात्र से पवित्र कर देते हैं। जो श्रेष्‍ठ ब्राह्मण मुझमें मन लगाने वाले और मेरे शरणागत भक्‍त हों, उन्‍हें पड्क्तिपावन समझो। वे विशेषरूप से पूजा करने के योग्‍य हैं। राजन! अब निन्‍दा के योग्‍य ब्राह्मणों का वर्णन सुनो।

आपद्धर्म, श्रेष्ठ और निन्द्य ब्राह्मण का वर्णन

जो ब्राह्मण संसार में कपटपूर्ण बर्ताव करते हैं, वे वेदों के पारगामी विद्वान होने पर भी पापाचारी ही माने जाते हैं। जो अग्‍निहोत्र और स्‍वाध्‍याय न करता हो, सदा दान लेने की ही रुचि रखता हो और जहाँ कहीं भी भोजन कर लेता हो, उसको ब्राह्मणजाति का कलंक समझना चाहिए। नरेश्वर! जिसका शरीर मरणशौच का अन्न खाकर मोटा हुआ हो, जो शुद्र का अन्न भोजन करता हो और शुद्र के ही अन्न के रस से पुष्ट हुआ हो, उस ब्राह्मण की प्रकार गति होती है, मैं नहीं जानता; क्योंकि प्रतिदिन स्वाध्याय, जप और होम करने पर भी उसकी उत्तम गति नहीं होती। जो ब्राह्मण प्रतिदिन अग्निहोत्र करने पर भी शुद्र के अन्न से बचा न रहता हो, उसके आत्मा, वेदाध्ययन और तीनों अग्नि-इन पाँचों नाश हो जाता है। जो ब्राह्मण प्रतिदिन अग्निहोत्र करने पर भी शुद्र के अन्न से बचा न रहता हो, उसके आत्‍मा, वेदाध्‍यान और तीनों अग्‍नि- इन पांचों का नाश हो जाता है।[1]

शूद्र की सेवा करने वाले ब्राह्मण को खाने के लिये विशेषत: जमीन पर ही अन्‍न डाल देना चाहिये; क्‍योंकि वह कुत्‍ते और गीदड़ के ही समान होता है। जो ब्राह्मण मूर्खतावश मरे हुए शूद्र के शव के पीछे-पीछे श्‍मशान भूमि में जाता है, उसको तीन रात का अशौच लगता है। तीन रात पूर्ण होन पर किसी समुद्र में मिलने वाली नदी के भीतर स्‍नान करके सौ बार प्राणायाम करे और घी पीवे तो वह शुद्ध होता है। जो श्रेष्‍ठ द्विज किसी अनाथ ब्राह्मण के शव को श्‍मशान में ले जाते हैं, उन्‍हें पग-पग पर अश्‍वमेध-यज्ञ का फल मिलता है। उन शुभ कर्म करने वालों को किसी प्रकार का अशुभ या पाप नहीं लगता। वे जल में स्‍नान करने मात्र से तत्‍काल शुद्ध हो जाते हैं। निवृत्‍ति मार्ग परायण ब्राह्मण को शूद्र के घर में दूध या दही भी नहीं खाना चाहिये। उसे भी शूद्रान्‍न ही समझना चाहिये। अत्‍यन्‍त भूखे होने के कारण अन्‍न की इच्‍छा वाले ब्राह्मणों के भोजन में जो मनुष्‍य विघ्‍न डालता है, उससे बढ़कर पापी दूसरा कोई नहीं है।

राजन! यदि ब्राह्मण शील और सदाचार से रहित हो जाय तो छहों अंगों सहित सम्‍पूर्ण वेद, सांख्‍य, पुराण और उत्‍तम कुल का जन्‍म- ये सब मिलकर भी उसे सद्गति नहीं दे सकते।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-45
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-46

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