अश्वमेध यज्ञ का आरम्भ

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 88 मेंअश्वमेध यज्ञ के आरम्भ का वर्णन हुआ है।[1]

वैशम्‍पायन द्वारा अश्वमेध यज्ञ का वर्णन

उसके तीसरे दिन सत्‍यवतीनन्‍दन प्रवचन कुशल महर्षि व्‍यास युधिष्‍ठिर के पास आकर बोले- ‘कुन्‍तीनन्‍दन! तुम आज से यज्ञ आरम्‍भ कर दो। उसका समय आ है। यज्ञ का शुभ मुहुर्त उपस्‍थित है और याजकगण तुम्‍हें बुला रहे हैं। ‘राजेन्‍द्र! तुम्‍हारे इस यज्ञ में किसी बात की कमी नहीं रहेगी। इसलिये यह किसी भी अंग से हीन न होने के कारण अहीन (सर्वांगपूर्ण) कहलायेगा। इसमें सुवर्ण नामक द्रव्‍य की अधिकता होगी; इसलिये यह बहुसुवर्णक नाम से विख्‍यात होगा। ‘महाराज! यज्ञ के प्रधान कारण ब्राह्मण ही हैं; इसलिये तुम उन्‍हें तिगुनी दक्षिणा देना। ऐसा करने से तुम्‍हारा यह एक ही यज्ञ तीन यज्ञों के समान हो जायगा।

‘नरेश्वर! यहाँ बहुत-सी दक्षिणा वाले तीन अश्‍वमेध– यज्ञों का फल पाकर तुम ज्ञाति वध के पाप से मुक्‍त हो जाओगे। ‘कुरुनन्‍दन! तुम्‍हें जो अश्‍वमेध– यज्ञ का अवभृथ– स्‍नान प्राप्‍त होगा, वह पवित्र, पावन और उत्तम है।’ परम बुद्धिमान व्‍यास जी के ऐसा कहने पर धर्मात्‍मा एवं तेजस्‍वी राजा युधिष्‍ठिर ने अश्‍वमेध–यज्ञ की सिद्धि के लिये उसी दिन दीक्षा ग्रहण की। फिर उन महाबाहु नरेश ने बहुत– से अन्‍न की दक्षिणा से युक्‍त तथा सम्‍पूर्ण कामना और गुणों से सम्‍पन्‍न उस अश्‍वमेध नामक महायज्ञ का अनुष्‍ठान आरम्‍भ कर दिया। उसमें वेदों के ज्ञाता और सर्वज्ञ याजकों ने सम्‍पूर्ण कर्म किये– कराये। वे सब ओर घूम– घूमकर सत्‍पुरुषों– द्वारा शिक्षित कर्म का सम्‍पादन करते– कराते थे।[1] उनके द्वारा उस यज्ञ में कहीं भी कोई भूल या त्रुटि नहीं होने पायी। कोई भी कर्म न तो छूटा और न अधूरा रहा। श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों ने प्रत्‍येक कार्य को क्रम के अनुसार उचित रीति से पूरा किया। राजन! वहाँ ब्राह्मण शिरोमणियों ने प्रवर्ग्‍य नामक धर्मानुकूल कर्म को यथोचित रीति से सम्‍पन्न करके विधि पूर्वक सोमाभिषव–सोमलता का रस निकलने का कार्य किया। महाराज! सोमपान करने वालों में श्रेष्‍ठ तथा शास्‍त्र की आज्ञा के अनुसार चलने वाले विद्वानों ने सोमरस निकालकर उसके द्वारा क्रमश: तीनों समय के सवन कर्म किये। उस यज्ञ में आया हुआ कोई भी मनुष्‍य, चाहे वह निम्‍न- से-निम्‍न श्रेणी का क्‍यों न हो, दीन-दरिद्र, भूखा अथवा दुखिया नहीं रह गया था।

अश्वमेध यज्ञ का आरम्भ

शत्रुसूदन महातेजस्‍वी भीमसेन महाराज युधिष्‍ठिर की आज्ञा से भोजनार्थियों को भोजन दिलाने के काम पर सदा डटे रहते थे। यज्ञ की वेदी बनाने में निपुण याजकगण प्रतिदिन शास्‍त्रों विधि के अनुसार सब कार्य सम्‍पन्‍न किया करते थे। बुद्धिमान राजा युधिष्‍ठिर के यज्ञ का कोई भी सदस्‍य ऐसा नहीं था जो छहों अंगों का विद्वान, ब्रह्मचर्य– व्रत का पालन करने वाला, अध्‍यापन कर्म में कुशल तथा वाद– विवाद में प्रवीण न हो। भरतश्रेष्‍ठ! तत्‍पश्‍चात जब यूप की स्‍थापना का समय आया, तब याजकों ने यज्ञ भूमि में बेल के छ:, खैर के छ:, पलाश के भी छ:, देवदारु के दो और लसोड़े का अचार एक –इस प्रकार इक्‍कीस यूप कुरुराज युधिष्‍ठिर के यज्ञ में खड़े किये।
भरतभूषण! इनके सिवा धर्मराज की आज्ञा से भीमसेन ने यज्ञ की शोभा के लिये और भी बहुत– से सवर्णमय यूप खड़े कराये। वस्‍त्रों द्वारा अलंकृत किये गये वे राजर्षि युधिष्‍ठिर के यज्ञ सम्‍बन्‍धी यूप आकाश में सप्‍तर्षियों से घिरे हुए इन्‍द्र के अनुगामी देवताओं के समान शोभा पाते थे। यज्ञ की वेदी बनाने के लिये वहाँ सोने की ईंटें तैयार कराया गयी थी। उनके द्वारा जब वेदी बनकर तैयार हुई तब वह दक्ष प्रजापति की यज्ञ वेदी के समान शोभा पाने लगी। उस यज्ञ मण्‍डप में अग्‍नि चयन के लिये चार स्‍थान बने थे। प्रत्‍येक वेदी सुवर्णमय पंख से युक्‍त एवं गरुड़ के समान आकार वाली थी। वह त्रिकोणाकार बनायी गयी थी। तदनन्‍तर मनीषी पुरुषों ने शास्‍त्रोंक्‍त विधि के अनुसार पशुओं को नियुक्‍त किया। भिन्‍न-भिन्‍न देवताओं के उद्देश्‍य से पशु–पक्षी, शास्त्र कथित वृषभ और जलचर जन्‍तु– इन सबका अग्नि स्‍थापन– कर्म में याजकों ने उपयोग किया।

गन्‍धर्वों आदि का मधुर संगीत गायन

कुन्‍तीनन्‍दन महात्‍मा युधिष्‍ठिर के उस यज्ञ में जो यूप खड़े किये गये थे, उनमें तीन सौ पशु बांधें गये थे। उन सब में प्रधान वही अश्व रत्‍न था। साक्षात देवर्षियों से भरा हुआ युधिष्‍ठिर का वह यज्ञ बड़ी शोभा पा रहा था। गन्‍धर्वों के मधुर संगीत और अप्‍सराओं के नृत्‍य से उसकी शोभा बढ़ गयी थी। वह यज्ञ मण्‍डप किम्‍पुरुषों से भरा– पूरा था। किन्‍नर भी उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उसके चारों ओर सिद्धों और ब्राह्मणों के निवास स्‍थान बने थे, जिनसे वह यज्ञ– मण्‍डप घिरा था। व्‍यास जी के शिष्‍य श्रेष्‍ठ ब्राह्मण उस यज्ञ सभा में सदा उपस्‍थित रहते थे। नारद, महातेजस्‍वी तुम्‍बुरु, विश्‍वावसु, चित्रसेन तथा अन्‍य संगीत कला लोकविद, गान निपुण एवं नृत्‍यविशारद गन्‍धर्व प्रतिदिन यज्ञ कार्य के बीच–बीच में समय मिलने पर अपनी नाच–गान की कलाओं द्वारा उन ब्राह्मणों का मनोरंजन करते थे।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 88 श्लोक 1-19
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 88 श्लोक 20-40

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श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को यज्ञ के लिए आज्ञा देना | व्यास की आज्ञा से अश्व की रक्षा हेतु अर्जुन की नियुक्ति | व्यास द्वारा भीम, नकुल तथा सहदेव की विभिन्न कार्यों हेतु नियुक्ति | सेना सहित अर्जुन के द्वारा अश्व का अनुसरण | अर्जुन के द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अर्जुन का प्राग्ज्यौतिषपुर के राजा वज्रदत्त के साथ युद्ध | अर्जुन के द्वारा वज्रदत्त की पराजय | अर्जुन का सैन्धवों के साथ युद्ध | दु:शला के अनुरोध से अर्जुन और सैन्धवों के युद्ध की समाप्ति | अर्जुन और बभ्रुवाहन का युद्ध एवं अर्जुन की मृत्यु | अर्जुन की मृत्यु से चित्रांगदा का विलाप | अर्जुन की मृत्यु पर बभ्रुवाहन का शोकोद्गार | उलूपी का संजीवनी मणि द्वारा अर्जुन को पुन: जीवित करना | उलूपी द्वारा अर्जुन की पराजय का रहस्य बताना | अर्जुन का पुत्र और पत्नी से विदा लेकर पुन: अश्व के पीछे जाना | अर्जुन द्वारा मगधराज मेघसन्धि की पराजय | अश्व का द्वारका, पंचनद तथा गांधार देश में प्रवेश | अर्जुन द्वारा शकुनिपुत्र की पराजय | युधिष्ठिर की आज्ञा से यज्ञभूमि की तैयारी | युधिष्ठिर के यज्ञ की सजावट और आयोजन | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर से अर्जुन का 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