उत्तंक को पुन: कुण्डलों की प्राप्ति

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 58 में उत्तंक को पुन: कुण्डलों की प्राप्ति का वर्णन हुआ है।[1]

ब्राह्मण एवं उत्तंक का संवाद

वैशम्पायन जी ने कहा- जनमेजय! इन्द्र उत्तंक के दु:ख से दुखी थे। अत: ब्राह्मण का वेष बनाकर उनसे बोले- ब्राह्मण! यह काम तुम्हारे वश का नहीं है। नागलोक यहाँ से हजारों योजन दूर है। इस काठ के डंडे से वहाँ का रास्ता बने, यह कार्य सधने वाला नहीं जान पड़ता। उत्तंक ने कहा- ब्राह्मन! द्विजश्रेष्ठ! यदि नागलोक मेें जाकर उन कुण्डलों को प्राप्त करना मेरे लिये असम्भव है तो मैं आपके सामने ही प्राणों का परित्याग कर दूँगा।[1] वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! वज्रधारी इन्द्र जब किसी तरह उत्तंक को अपने निश्चय से न हटा सके, तब उन्होंने उन के डंडे के अग्रभाग में अपने वज्रास्त्र का संयोग कर दिया। जनमेजय! उस वज्र के प्रहार से विदीर्ण होकर पृथ्वी ने नागलोक का रास्ता प्रकट कर दिया। उसी मार्ग से उन्होंने नागलोक में प्रवेश किया और देखा कि नागों का लोक सहस्रों योजन विस्तृत है। महाभाग! उसके चारों ओर दिव्य पर कोटे बने हुए हैं, जो सोने की ईंटों से बने हुए हैं और मणि-मुक्ताओं से अलंकृत हैं। वहाँ स्फटिक मणि की बनी हुई सीढ़ियों से सुशोभित बहुत सी बावड़ियों, निर्मल जल वाली अनेकानेक नदियों बौर विहगवृन्द से विभूषित बहुत से मनोहर वृक्षों को भी उन्होंने देखा। भृगुकुल तिलक उत्तंक ने नागलोक का बाहरी दरवाजा देखा, जो सौ योजन लंबा और पाँच योजन चौड़ा था। नागलोक की वह विशालता देखकर उत्तंक मुनि उस समय दीन-हतोत्साह हो गये। अब उन्हें फिर कुण्डल पाने की आशा नहीं रही। इसी समय उनके पास एक घोड़ा आया, जिसकी पूँछ के बाल काले और सफेद थे। उसके नेत्र और मुँह लाल रंग के थे। अब कुरुनन्दन! वह अपने तेज से प्रज्वलित सा हो रहा था। उसने उत्तंक से कहा- विप्रवर! तुम मेरे इस अपान मार्ग में फूँक मारो। ऐसा करने से ऐरावत के पुत्र ने जो तुम्हारे दोनों कुण्डल लाये हैं, वे तुम्हें मिल जायँगे।[2]

‘बेटा! इस कार्य में तुम किसी तरह घृणा न करो; क्योंकि गौतम के आश्रम में रहते समय तुमने अनेक बार ऐसा किया है। उत्तंक ने कहा- गुरुदेव के आश्रम पर मैंने कभी आपका दर्शन किया है, इसका ज्ञान मुझे कैसे हो? और आपके कथनानुसार वहाँ रहते समय पहले जो कार्य मैं अनेक बार कर चुका हूँ, वह क्या है? यह मैं सुनना चाहता हूँ। घोड़े ने कहा- ब्राह्मन! मैं तुम्हारे गुरु का गुरु जातवेदा अग्नि हूँ, यह तुम अच्छी तरह जान लो। भृगुनन्दन! तुमने अपने गुरु के लिये सदा पवित्र रहकर विधिपूर्वक मेरी पूजा की है। इसलिये मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा। अब तुम मेरे बताये अनुसार कार्य करो, विलम्बन करो। अग्निदेव के ऐसा कहने पर उत्तंक ने उनकी आज्ञा का पालन किया। तब घृतमयी अर्चिवाले अग्निदेव प्रसन्न होकर नागलोक को जला डालने की इच्छा से प्रज्वलित हो उठे। भारत! जिस समय उत्तंक ने फूँक मारना आरम्भ किया, उसी समय उस अश्वरूपधारी अग्नि के रोम-रोम से घनी भूत धूम उठने लगा; जो नागलोक को भयभीत करने वाला था। महाराज भरतनन्दन! बढ़ते हुए उस महान धूम से आच्छन्न हुए नागलोक में कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। जनमेजय! ऐरावत के सारे घर में हाहाकार मच गया। भारत! वासुकि आदि नागों के घर धूम से आच्छादित हो गये। उनमें अँधेरा छा गया। वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो कुहासा से ढके हुए वन और पर्वत हों। धुआँ लगने से नागों की आँखें लाल हो गयी। वे आग की आँच से तप से रहे थे। महात्मा भार्गव (उत्तंक)- का क्या निश्चय है, यह जानने के लिये सभी एकत्र होकर उनके पास आये। उस समय उन अत्यंत तेजस्वी महर्षि का निश्चय सुनकर सबकी आँखें भय से कातर हो गयी तथा सबने उनका विधिवत पूजन किया।[2]

उत्तंक को पुन: कुण्डलों की प्राप्ति

अन्त में सभी नाग बूढ़े और बालकों को आगे करके हाथ जोड़, मस्तक झुका प्रणाम करके बोले- ‘भगवन! हम पर प्रसन्न हो जाइये’। इस प्रकार ब्राह्मण देवता को प्रसन्न करके नागों ने उन्हें पाद्य और अर्ध्य निवेदन किया और वे दोनों परम पूजित दिव्य कुण्डल भी वापस कर दिये। तदन्तर नागों से सम्मानित होकर प्रतापी उत्तंक मुनि अग्निदेव की प्रदक्षिणा कर के गुरु के आश्रम की ओर चल दिये। निष्पाप नरेश! वहाँ गौतम के घर में शीघ्रतापूर्वक पहुँचकर उन्होंने गुरुपत्नी को वे दोनों दिव्य कुण्डल दे दिये। जनमेजय! वासुकि आदि नागों के यहाँ जो घटना घटी थी, उसका सारा समाचार द्विजश्रेष्ठ उत्तंक ने अपने गुरु महर्षि गौतम से ठीक-ठाक कह सुनाया। जनमेजय! इस प्रकार महात्मा उत्तंक ने तीनों लोकों में घूमकर वे मणिमय दिव्य कुण्डल प्राप्त किये थे। भरतश्रेष्ठ! उत्तंक मुनि, जिनके विषय में तुम मुझ से पूछ रहे थे, ऐसे ही प्रभावशाली और महान तपस्वी थे।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 58 श्लोक 15-34
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 58 श्लोक 35-54
  3. महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 58 श्लोक 55-61

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