चतुर्दश (14) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक भाग-2 का हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मण आदि सभी वर्णों के लोग स्वधर्म को ही उत्कृष्ट मानकर उसमें लगे रहते थे। सभी मंगलयुक्त थे। धर्म में सत्य की प्रधानता थी और सत्य उत्तम विषयों से युक्त होता था। धर्म के आसन पर बैठे हुए युधिष्ठिर सत्पुरुषों, स्त्रियों, बालकों, रोगियों, बड़े-बूढ़ों तथा पूर्वनिर्मित सम्पूर्ण वर्णाश्रम-धर्मों की रक्षा के लिये सदा उद्यत रहते थे। वे जीविकाहीन मनुष्यों को जीविका प्रदान करते, यज्ञ के लिये धन दिलाते तथा अन्यान्य उपायों द्वारा प्रजा की रक्षा करते थे। अत: इहलोक का सारा सुख तो सबको प्राप्त ही था, परलोक का भी भय नहीं रह गया था। उनके शासन काल में सारा जगत स्वर्गलोक के समान सुखद हो गया था। यहाँ का एकाग्र सुख स्वर्ग से विशिष्ट एवं उत्तम था। उनके राज्य की सारी स्त्रियाँ पतिव्रता, रूपवती, आभूषणों से विभूषित और शस्त्रोक्त सदाचार से सम्पन्न होती थीं। वे अपने उत्तम गुणों द्वारा पति की प्रसन्नता को बढ़ाने में कारण होती थीं। पुरुष पुण्यशील अपने-अपने धर्म में अनुरक्त और सुखी थे। वे कभी सूक्ष्म से सूक्ष्म पाप भी नहीं करते थे। सभी स्त्री-पुरुष सदा प्रिय वचन बोलते थे, मन में कुटिलता नहीं आने देते थे, शुद्ध रहते थे और कभी थकावट का अनुभव नहीं करते थे। उन दिनों प्राय: भूतल के सभी मनुष्य कुण्डल, हार, कड़े और करधनी से विभूषित थे। सुन्दर वस्त्र और सुन्दर गन्ध से सुशोभित होते थे। सभी ब्राह्मण ब्रह्मवेता और समस्त शास्त्रों में परिनिष्ठित थे। उनके शरीर में झुरियाँ नहीं पड़ती थीं, उनके बाल सफेद नहीं होते थे और वे सुखी तथा दीर्घजीवी होते थे। महाराज! मनुष्यों की इच्छा परायी स्त्रियों के लिये नहीं होती थी, वर्णों में कभी संकरता नहीं आती थी और सब लोग मर्यादा में स्थित रहते थे। राजेन्द्र युधिष्ठिर के शासनकाल में हिंसक पशु, सर्प और बिच्छू आदि न तो आपस में और न दूसरों को ही कभी बाधा पहँचाते थे। गौएँ बहुत दूध देती थीं, उनके मुख, पूँछ और उदर सुन्दर होते थे। किसान आदि उन्हें पीड़ा नहीं देते थे और उनके बछड़े भी नीरोग होते थे। उस समय के सभी मनुष्य अपने समय को व्यर्थ नहीं जाने देते थे। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन पुरुषार्थों में क्रमश: प्रवृत्त होते थे। शास्त्र में जिनका निषेध नहीं किया गया है, उन्हीं विषयों का सेवन करते और वेदशास्त्रों के स्वाध्याय के लिये सदा उद्यत रहते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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