महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 35 श्लोक 17-33

पंचत्रिंश (35) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: पंचत्रिंश अध्याय: श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद


जो विद्वान संयोग और वियोग को तथा वैसे ही एकत्व और नानात्व को एक साथ तत्त्व: जानता है, वह दु:ख से मुक्त हो जाता है। जो किसी वस्तु की कामना नहीं करता तथा जिसके मन में किसी बात का अभिमान नहीं होता, वह इस लोक में रहता हुआ ही ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाता है। जो माया और सत्त्वादि गुणों के तत्त्व को जानता है, जिसे सब भूतों के विधान का ज्ञान है और जो ममता तथा अहंकार से रहित हो गया है, वह मुक्त हो जाता है- इसमें संदेह नहीं है। यह देह एक वृक्ष के समान है। अज्ञान इसका मूल अंकुर (जड़) है, बुद्धि स्कन्ध (तना) है, अंहकार शाखा है, इन्द्रियाँ खोखले हैं, पंच महाभूत उसके विशेष अवयव हैं और उन भूतों के विशेष भेद उसकी टहनियाँ हैं। इसमें सदा ही संकल्प रूपी पत्ते उगते और कर्मरूपी फूल खिलते रहते हैं। शुभाशुभ कर्मों से प्राप्त होने वाले सुख-दु:खादि ही उसमें सदा लगे हरने वाले फल हैं। इस प्रकार ब्रह्मरूपी बीज से प्रकट होकर प्रवाह रूप से सदा मौजूद रहने वाला देरूपी वृक्ष समस्त प्राणियों के जीवन का आधार है। जो इसके तत्त्व को भली-भाँति जानकर ज्ञानरूपी उत्तम तलवार से इसे काट डालता है। वह अमरत्व को प्राप्त होकर जन्म-मृत्यु के बन्धन से छुटकारा पा जाता है।

महाप्राज्ञ! जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य आदि के तथा धर्म, अर्थ और काम के स्वरूप का निश्चय किया गया है, जिसको सिद्धों के समुदाय ने भली-भाँति जाना है, जिसका पूर्वकाल में निर्णय किया गया था और बुद्धिमान पुरुष जिसे जानकर सिद्ध हो जाते हैं, उस परम उत्तम सनातन ज्ञान का अब मैं तुम से वर्णन करता हूँ। पहले की बात है, प्रजापति दक्ष, भरद्वाज, गौतम भृगुनन्दन शुक्र, वसिष्ठ, कश्यप, विश्वामित्र और अत्रि आदि महर्षि अपने कर्मों द्वारा समस्त मार्गों में भटकते भटकते जब बहुत थक गये, जब एकत्रित हो आपस में जिज्ञासा करते हुए परम वृद्ध अंगिरा मुनि को आगे करके ब्रह्मलोक में गये और वहाँ सुखपूर्वक बैठे हुए पापरहित महात्मा ब्रह्मा जी का दर्शन करके उन महर्षि ब्राह्मणों ने विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। फिर तुम्हारी ही तरह अपने परम कल्याण के विषय में पूछा-

‘श्रेष्ठ कर्म किस प्रकार करना चाहिये? मनुष्य पाप से किस प्रकार छूटता है? कौन से मार्ग हमारे लिये कल्याण कारक हैं? सत्य क्या है? और पाप क्या है? तथा कर्मों के वे दो मार्ग कौन से हैं, जिनसे मनुष्य दक्षिणायन और उत्तरायण गति को प्राप्त होते हैं? प्रलय और मोक्ष क्या हैं? एवं प्राणियों के जन्म और मरण क्या है?’ शिष्य! उन मुनिश्रेष्ठ महर्षियों के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उन प्रतितामह ब्रह्मा जी ने जो कुछ कहा, वह मैं तुम्हें शास्त्रानुसार पूर्णतया बताऊँगा, उसे सुनो। ब्रह्मा जी ने कहा- उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षियो! ऐसा जानो कि चराचर जीव सत्यस्वरूप परमात्मा से उत्पन्न हुए हैं और तपरूप कर्म से जीवन धारण करते हैं। वे अपने कारण स्वरूप ब्रह्म को भूलकर अपने कर्मों के अनुसार आवागमन के चक्र में घूमते हैं। क्योंकि गुणों से युक्त हुआ सत्य ही पाँच लक्षणों वाला निश्चित किया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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