गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
दूसरा अध्याय
सांख्ययोग
य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। सर्वत्र राग रहित होकर जो पुरुष शुभ या अशुभ की प्राप्ति में न हर्षित होता है, न शोक करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है। यदा संहरते चायं कूर्मोङ्गनीव सर्वश:। कछुआ जैसे सब ओर से अंग समेट लेता है वैसे जब यह पुरुष इंद्रियों को उनके विषय में से समेट लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर हुई कही जाती है। विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:। देहधारी निराहारी रहता है तब उसके विषय मंद पड़ जाते हैं। परंतु रस नहीं जाता। वह रस तो ईश्वर का साक्षात्कार होने से निवृत्त होता है। टिप्पणी- यह श्लोक उपवास आदि का निषेध नहीं करता, वरन उसकी सीमा सूचित करता है। विषयों को शांत करने के लिए उपवास आदि आवश्यक हैं, परंतु उनकी जड़ अर्थात उनमें रहने वाला रस तो ईश्वर की झांकी होने पर ही निवृत्त होता है। ईश्वर-साक्षात्कार का जिसे रस लग जाता है वह दूसरे रसों को भूल ही जाता है। यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषास्य विपश्चित:। हे कौंतेय ! चतुर पुरुष के उद्योग करते रहने पर भी इंद्रियां ऐसी प्रमथनशील हैं कि उसके मन को भी बलात्कार से हर लेती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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