गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
अठारहवां अध्याय
इससे उलटा, जो भिन्न दिखाई देता है, वह भिन्न ही भाषित हो तो वह राजस ज्ञान है। और जहाँ कुछ पता ही नहीं लगता और सब बिना कारण के गड़बड़ लगता है, वह तामस ज्ञान है। ज्ञान के विभाग की भाँति कर्म के भी विभाग हैं। जहां फलेच्छा नहीं है, राग-द्वेष नहीं है, वह कर्म सात्त्विक हैं जहां भोग की इच्छा है, जहाँ ʻमैं करता हूंʼ। यह अभिमान है और इससे जहाँ हो-हल्ला है, वह राजस कर्म है। जहाँ परिणाम की, हानि की या हिंसा की, शक्ति की परवा नहीं है और जो मोह के वश होकर होता है, वह तामस कर्म है। कर्म की भाँति कर्त्ता भी तीन तरह के समझने चाहिए। सात्त्विक कर्ता वह है, जिसे राग नहीं है, अहंकार नहीं है, तथापि जिसमें दृढ़ता है, साहस है और जिसे अच्छे-बुरे फल से हर्ष- शोक नहीं है। राजस कर्त्ता में राग होता है, लोभ होता है, हिंसा होती है, हर्ष-शोक तो जरूर ही होता है, तो फिर कर्म-फल की इच्छा का तो कहना ही क्या? और तामस कर्ता अव्यवस्थित, दीर्घसूत्री, हठी, शठ, आलसी, संक्षेप में कहा जाय तो संस्कार- रहित होता है। बुद्धि, धृति और सुख के भी भिन्न-भिन्न प्रकार जानने योग्य हैं। सात्त्विक बुद्धि प्रवृत्ति-निवृत्ति, कार्य-अकार्य, भय-अभय और बंध-मोक्ष आदि का सही भेद करती और जानती है। राजसी बुद्धि यह भेद करने तो चलती है, पर गलत या विपरीत कर लेती है और तामसी बुद्धि तो धर्म को अधर्म मानती है। सब उल्टा ही निहारती है। धृति अर्थात धारण, कुछ भी ग्रहण करके उससे लगे रहने की शक्ति। यह शक्ति अल्पाधिक प्रमाण में सबमें है। यदि यह न हो तो जगत एक क्षण भी न टिक सके। अब जिसमें मन, प्राण और इंद्रियों की क्रिया की समता है, समानता है और एक- निष्ठा है, वहाँ धृति सात्त्विकी है और जिसके द्वारा मनुष्य धर्म, काम और अर्थ को आसक्तिपूर्वक धारण करता है वह धृति राजसी है। जो धृति मनुष्य को निंदा, भय, शोक, निराशा, मद वगैरह नहीं छोड़ने देती, वह तामसी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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