गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 44

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
अठारहवां अध्‍याय


सात्त्विक सुख वह है, जिसमें दु:ख का अनुभव नहीं है, जिसमें आत्मा प्रसन्‍न रहता है, जो शुरू में जहर-सा लगने पर भी, परिणाम में, अमृत के समान ही है। विषय-भोग में जो शुरू में मधुर लगता है, पर बाद को जहर के समान हो जाता है, वह राजस सुख है और जिसमें केवल मूर्च्‍छा, आलस्‍य, निद्रा ही है वह तामस सुख है।

इस प्रकार सब वस्‍तुओं के तीन हिस्‍से किये जा सकते हैं। ब्राह्मणादि चार वर्ण भी इन तीन गुणों के अल्‍पाधिक्‍य के कारण हुए हैं। ब्राह्मण के कर्म मे शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, अनुभव, अस्तिकता होनी चाहिए। क्षत्रियों में शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध में पीछे न हटना, दान, राज्‍य चलाने की शक्ति होनी चाहिए। खेती, गो-रक्षा और व्‍यापार वैश्‍य का कर्म है और शूद्र का सेवा।

इसका यह मतलब नहीं कि एक के गुण दूसरे में नहीं होते, अथवा इन गुणों को हासिल करने का उसे हक नहीं है; पर उपर्युक्‍त भाँति के गुण या कर्म से उस- उस वर्ण की पहचान हो सकती है। यदि हर एक वर्ण के गुण- कर्म पहचाने जायं तो परस्‍पर द्वेष-भाव न हो, स्‍पर्धा न हो। ऊंच-नीच की भावना की यहाँ कोई गुंजाइश नहीं है; बल्कि सब अपने स्‍वभाव के अनुसार निष्‍काम भाव से अपने कर्म करते रहें तो उन कर्मों को करते हुए वे मोक्ष के अधिकारी हो जाते हैं। इसीलिए कहा है कि परधर्म चाहे सरल लगता हो, स्‍वधर्म चाहे खोखला लगता हो, तो भी स्‍वधर्म अच्‍छा है। स्‍वभावजन्‍य कर्म में पाप न होने की संभावना है, क्‍योंकि उसी में निष्‍कामता की पाबंदी हो सकती है, दूसरा करने की इच्‍छा में ही कामना आ जाती है। बाकी तो जैसे अग्नि मात्र में धुंआ है, वैसे ही कर्म मात्र में दोष तो अवश्‍य है; पर सहज प्राप्‍त कर्म फल की इच्‍छा के बिना होते हैं, इसलिए कर्म का दोष नहीं लगता।

जो इस प्रकार स्‍वधर्म का पालन करता हुआ शुद्ध हो गया है, जिसने मन को वश में कर रखा है, जिसने पांच विषयों को छोड़ दिया है, जिसने राग-द्वेष को जीत लिया है, जो एकांत सेवी अर्थात अंतरध्‍यानी रह सकता है, जो अल्‍पाहार करके मन, वचन, काया को अंकुश में रखता है, ईश्वर का ध्‍यान जिसे बराबर बना रहता है, जिसने अहंकार, काम, क्रोध, परिग्रह इत्‍यादि तज दिये हैं, वह शांत योगी ब्रह्मभाव को पाने योग्‍य है। ऐसा मनुष्‍य सबके प्रति समभाव रखता है और हर्ष-शोक नहीं करता, ऐसा भक्त ईश्‍वर-तत्त्व को यथार्थ जानता है और ईश्‍वर में लीन हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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