गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
अठारहवां अध्याय
इस प्रकार सब वस्तुओं के तीन हिस्से किये जा सकते हैं। ब्राह्मणादि चार वर्ण भी इन तीन गुणों के अल्पाधिक्य के कारण हुए हैं। ब्राह्मण के कर्म मे शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, अनुभव, अस्तिकता होनी चाहिए। क्षत्रियों में शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध में पीछे न हटना, दान, राज्य चलाने की शक्ति होनी चाहिए। खेती, गो-रक्षा और व्यापार वैश्य का कर्म है और शूद्र का सेवा। इसका यह मतलब नहीं कि एक के गुण दूसरे में नहीं होते, अथवा इन गुणों को हासिल करने का उसे हक नहीं है; पर उपर्युक्त भाँति के गुण या कर्म से उस- उस वर्ण की पहचान हो सकती है। यदि हर एक वर्ण के गुण- कर्म पहचाने जायं तो परस्पर द्वेष-भाव न हो, स्पर्धा न हो। ऊंच-नीच की भावना की यहाँ कोई गुंजाइश नहीं है; बल्कि सब अपने स्वभाव के अनुसार निष्काम भाव से अपने कर्म करते रहें तो उन कर्मों को करते हुए वे मोक्ष के अधिकारी हो जाते हैं। इसीलिए कहा है कि परधर्म चाहे सरल लगता हो, स्वधर्म चाहे खोखला लगता हो, तो भी स्वधर्म अच्छा है। स्वभावजन्य कर्म में पाप न होने की संभावना है, क्योंकि उसी में निष्कामता की पाबंदी हो सकती है, दूसरा करने की इच्छा में ही कामना आ जाती है। बाकी तो जैसे अग्नि मात्र में धुंआ है, वैसे ही कर्म मात्र में दोष तो अवश्य है; पर सहज प्राप्त कर्म फल की इच्छा के बिना होते हैं, इसलिए कर्म का दोष नहीं लगता। जो इस प्रकार स्वधर्म का पालन करता हुआ शुद्ध हो गया है, जिसने मन को वश में कर रखा है, जिसने पांच विषयों को छोड़ दिया है, जिसने राग-द्वेष को जीत लिया है, जो एकांत सेवी अर्थात अंतरध्यानी रह सकता है, जो अल्पाहार करके मन, वचन, काया को अंकुश में रखता है, ईश्वर का ध्यान जिसे बराबर बना रहता है, जिसने अहंकार, काम, क्रोध, परिग्रह इत्यादि तज दिये हैं, वह शांत योगी ब्रह्मभाव को पाने योग्य है। ऐसा मनुष्य सबके प्रति समभाव रखता है और हर्ष-शोक नहीं करता, ऐसा भक्त ईश्वर-तत्त्व को यथार्थ जानता है और ईश्वर में लीन हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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