गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
नवां अध्याय
मंगलप्रभात टिप्प्णी- इसमें से हम पाते हैं कि भक्ति का तात्पर्य है ईश्वर में आसक्ति। अनासक्ति के अभ्यास का भी यह सरल से सरल उपाय है। इससे अध्याय के आरंभ में प्रतिज्ञा की है कि भक्ति राजयोग है और सरल मार्ग है। हृदय में जा बैठ जाय वह सरल है, जो न बैठे, वह विकट है। इसी से उसे ʻसिर का सौदाʼ भी माना गया है। पर यह ऐसा है कि देखने वाले जलते हैं। अंदर पड़े हुए महासुख मानते हैं। कवि लिखता है कि उबलते तेल की कड़ाही में सुधन्वा हँसता था और बाहर खड़े हुए कांपते थे। कथा है कि नंद अंत्यज की जब अग्नि-परीक्षा हुई तब वह अग्नि में नाचता था। इन सबकी सच्चाई की ऐतिहासिकता की खोज की जरूरत नहीं है। जो किसी भी चीज में लीन होता है उसकी ऐसी ही स्थिति होती है। वह अपने को भूल जाता है, पर प्रभु को छोड़कर दूसरे में लीन कौन होगा? ʻशक्कर गन्ने का स्वाद छोड़ कड़वे नीम को मत घोल रे, अत: नवां अध्याय बतलाता है कि प्रभु-आसक्ति अर्थात भक्ति के बिना फल में अनासक्ति असंभव है। श्लोक सारे अध्याय का निचोड़ है और हमारी भाषा में उसका अर्थ है-ʻʻतू मुझमें समा जा।ʼʼ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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