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गीता-बोध
नवां अध्याय
वेद में वर्णित क्रियाएं फल-प्राप्ति के लिए होती हैं। अत:
उन्हें करने वाले स्वर्ग चाहे पावें, पर जन्म-मरण के चक्कर से
नहीं छूटते। पर जो एक ही भाव से मेरा चिंतन करते रहते हैं
और मुझे ही भजते हैं, उनका सारा भार मैं उठाता हूँ। उनकी
आवश्यकताएं मैं पूरी करता हूँ और उसकी मैं ही संभाल करता
हूँ। मुझे कुछ, दूसरे देवताओं में श्रद्धा रखकर उन्हें भजते हैं।
इसमें अज्ञान है, तथापि अंत में तो वे भी मुझे ही भजने वाले
माने जायेंगे, क्योंकि यज्ञ मात्र का मैं ही स्वामी हूँ। पर मेरी
इस व्यापकता को न जानकर वे अंतिम स्थिति को पहुँच नहीं
सकते। देवताओं को पूजने वाले देवलोक, पितरों को पूजने वाले
पितृलोक भूतप्रेतादि को पूजने वाले उनका लोक और ज्ञानपूर्वक
मुझे भजने वाले मुझे पाते हैं। जो मुझे एक पत्ता तक भक्तिपूर्वक
अर्पण करते हैं, उन प्रयत्नशील मनुष्यों की भक्ति को मैं स्वीकार
करता हूँ। इसलिए जो कुछ तू करे, यह सब मुझे अर्पण करके ही
कर, तब शुभ-अशुभ फल का उत्तरदायित्व तेरा नहीं रहेगा।
जब तूने फलमात्र का त्याग कर दिया तब तेरे लिए जन्म-मरण
के चक्कर नहीं रह गये। मुझे सब प्राणी समान हैं। एक प्रिय
और दूसरा अप्रिय हो, यह नहीं है। पर जो मुझे भक्तिपूर्वक
भजते हैं, वे तो मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ। इसमें पक्षपात नहीं
है, बल्कि यह उन्होंने अपनी भक्ति का फल पाया है इस भक्ति
का चमत्कार ऐसा है कि जो एक भाव से मुझे भजते हैं, वे
दुराचारी हों तो भी साधु बन जाते हैं। सूर्य के सामने जैसे अंधेरा
नहीं ठहरता, वैसे मेरे पास आते ही मनुष्य के दुराचारों का
नाश हो जाता है। इसलिए तू निश्चय समझ ले कि मेरी भक्ति
करने वाले नाश को प्राप्त ही नहीं होते। वे तो धर्मात्मा
होते हैं और शांति भोगते हैं।
इस भक्ति की महिमा ऐसी है कि
जो पाप योनि में जन्मे माने जाते हैं वे, और निरक्षर स्त्रियां,
वैश्य और शूद्र, जो मेरा आश्रय लेते हैं वे, मुझे पाते ही हैं, तब
पुण्यकर्म करने वाले ब्राह्मण-क्षत्रियों का तो कहना ही क्या
रहा! जो भक्ति करता है, उसे उसका फल मिलता है। इसलिए तू जब असार संसार में आ गया है तो मुझे भजकर उससे
तर जा। अपना मन मुझमें पिरो दे, मेरा ही भक्त रह, अपने
यज्ञ भी मेरे लिए कर, अपने नमस्कार भी मुझे ही पहुँचा और
इस भाँति मुझमें तू परायण होगा और अपनी आत्मा को मुझमें
होमकर शून्यवत हो जायगा तो तू मुझे ही पावेगा।
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