गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
अठारहवां अध्याय
संन्यासयोग
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। जिसके द्वारा प्राणियों की प्रवृत्ति होती है और जिसके द्वारा यह सारे-का-सारा व्याप्त है उसे जो पुरुष स्वकर्म द्वारा भजता है वह मोक्ष पाता है। श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मातत्स्वनुष्ठितात्। परमधर्म सुकर होने पर भी उससे विगुण स्वधर्म अधिक अच्छा है। स्वभाव के अनुरूप कर्म करने वाले मनुष्य को पाप नहीं लगता है। टिप्पणी - स्वधर्म अर्थात अपना कर्त्तव्य। गीता की शिक्षा का मध्यबिंदु कर्मफल त्याग है और स्वकर्म की अपेक्षा अधिक उत्तम कर्त्तव्य खोजने पर फल त्याग के लिए स्थान नहीं रहता, इसलिए स्वधर्म को श्रेष्ठ कहा है। सब धर्मों का फल उसके पालन में आ जाता है। सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्। हे कौंतेय! स्वभावत: प्राप्त कर्म, सदोष होने पर भी छोड़ना न चाहिए। जिस प्रकार अग्नि के साथ धुएं का संयोग है उसी प्रकार सब कर्मों के साथ दोष मौजूद है। असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह:। जिसने सब कहीं से आसक्ति को खींच लिया है, जिसने कामनाओं को त्याग दिया है, जिसने मन को जीत लिया है, वह संन्यास द्वारा निष्कामता रूपी परम सिद्धि पाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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