गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
पंद्रहवां अध्याय
पुरुषोत्तम योग
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से मैं प्राणियों को धारण करता हूँ और रसों को उत्पन्न करने वाला चंद्र बनकर समस्त वनस्पतियों का पोषण करता हूँ। अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: । प्राणियों के शरीर का आश्रय लेकर जठराग्नि होकर प्राण और अपान वायु के द्वारा मैं चार प्रकार का अन्न पचाता हूँ। सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । सबके हृदय में अधिष्ठित मेरे द्वारा स्मृति, ज्ञान और उनका अभाव होता है। समस्त वेदों द्वारा जानने योग्य मैं ही हूं, वेदों का जानने वाला मैं हूं, वेदांत का प्रकट करने वाला भी मैं ही हूँ। द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । इस लोक में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर अर्थात अविनाशी दो पुरुष हैं। भूतमात्र क्षर हैं और उनमें जो स्थिर रहने वाला अंतर्यामी है वह अक्षर कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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