गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
पंद्रहवां अध्याय
पुरुषोत्तम योग
उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: । इसके सिवा उत्तम पुरुष और है, वह परमात्मा कहलाता है। वह अव्यय ईश्वर तीनों लोक में प्रवेश करके उनका पोषण करता है। यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: । क्योंकि मैं क्षर से परे और अक्षर से भी उत्तम हूं, इसलिए वेदों और लोकों में पुरुषोत्तम नाम से प्रख्यात हूँ। यो मामेवमसंमूढ़ो जानाति पुरुषोत्तमम् । हे भारत! मोहरहित होकर मुझ पुरुषोत्तम को इस प्रकार जो जानता है वह सब जानता है और मुझे पूर्णभाव से भजता है। इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । हे अनध! यह गुह्य से गुह्य शास्त्र मैंने तुझसे कहा। हे भारत! इसे जानकर मनुष्य को चाहिए कि वह बुद्विमान बने और अपना जीवन सफल करे। ऊँ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीता रुपी उपनिषद, अर्थात व्रह्मविद्यान्तर्गत योगशास्त्र के श्रीकृष्णार्जुन- संवाद का ‘पुरुषोत्तम योग’ नामक पंद्रहवां अध्याय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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