गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
पंद्रहवां अध्याय
पुरुषोत्तम योग
श्रोत्रं चक्षु: स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । और वह कान, आंख, त्वचा, जीभ, नाक और मन का आश्रय लेकर विषयों का सेवन करता है। टिप्पणी- यहाँ ‘विषय’ शब्द का अर्थ वीभत्स विलास नहीं है, बल्कि प्रत्येक इंद्रिय की स्वाभाविक क्रिया है, जैसे आंख का विषय है देखना, कान का सुनना, जीभ का चखना। ये क्रियाऐं जब विकार वाली, अहं भाव वाली होती हैं तब दूषित- वीभत्स ठहरती हैं। जब निर्विकार होती हैं तब वे निर्दोष हैं। बच्चा आंख से देखता या हाथ से छूता हुआ विकार नहीं पाता, इसलिए नीचे के श्लोक में कहते हैं- उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् । शरीर का त्याग करने वाले या उसमें रहने वाले अथवा गुणों का आश्रय लेकर भोग भोगने वाले को इस अंश रूपी ईश्वर को, मूर्ख नहीं देखते, किंतु दिव्य चक्षु ज्ञानी देखते हैं। यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । यत्न करते हुए योगीजन अपने में स्थित इस ईश्वर को देखते हैं। जिन्होंने आत्म-शुद्धि नहीं की है, ऐसे मूढ़ जन यत्न करते हुए भी इसे नहीं पहचानते। टिप्पणी- इसमें और नवें अध्याय में दुराचारी को भगवान ने जो वचन दिया है उसमें विरोध नहीं है। अकृतात्मा से तात्पर्य है भक्तिहीन। स्वेच्छाचारी, दुराचारी जो नम्रतापूर्वक श्रद्धा से ईश्वर को भजता है वह आत्म शुद्ध हो जाता है और ईश्वर को पहचानता है। जो यम- नियमादि की परवाह न कर केवल बुद्धि प्रयोग से ईश्वर को पहचानना चाहते हैं, वे अचेता- चित्त से रहित, राम से रहित, राम को नहीं पहचान सकते। यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् । सूर्य में विद्यमान जो तेज समूचे जगत को प्रकाशित करता है और जो तेज चंद्र में तथा अग्नि में विद्यमान है, वह मेरा है, ऐसा जान। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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