गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
सातवां अध्याय
ज्ञानविज्ञान योग
यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयाचिंतुमिच्छति। जो-जो मनुष्य जिस-जिस स्वरूप की भक्ति श्रद्धापूर्वक करना चाहता है, उस-उस स्वरूप में उसकी श्रद्धा को मैं दृढ़ करता हूँ। स तथा श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते। श्रद्धापूर्वक उस-उस स्वरूप की वह आराधना करता है और उसके द्वारा मेरी निर्मित की हुई और अपनी इच्छित कामनाएं पूरी करता है। अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्। उन अल्प बुद्धिवालों को जो फल मिलता है वह नाशवान होता है। देवताओं को भजने वाले देवताओं को पाते हैं, मुझे भजने वाले मुझे पाते हैं। अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:। मेरे परम अविनाशी और अनुपम स्वरूप को न जानने वाले बुद्धिहीन लोग इंद्रियों से अतीत मुझको इंद्रियगम्य मानते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज