गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
सातवां अध्याय
ज्ञानविज्ञान योग
नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:। अपनी योगमाया से ढका हुआ मैं सबके लिए प्रकट नहीं हूँ। यह मूढ़ जगत मुझ अजन्मा और अव्यय को भलीभाँति नहीं पहचानता। टिप्पणी- इस दृश्य जगत को उत्पन्न करने का सामर्थ्य होते हुए भी अलिप्त होने के कारण परमात्मा के अदृश्य रहने का जो भाव है वह उसकी योगमाया है। वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। हे अर्जुन! जो हो चुके हैं, जो हैं और होने वाले सभी भूतों को मैं जानता हूं, पर मुझे कोई नहीं जानता। इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वनद्वमोहेन भारत। हे भारत! हे परंतप! इच्छा और द्वेष से उत्पन्न होने वाले सुख-दु:खादि द्वंद्व के मोह से प्राणी मात्र इस जगत में मोह-ग्रस्त रहते हैं। येषां त्वन्तगतं पापं जानानां पुण्यकर्मणा्म। पर जिन सदाचारी लोगों के पापों का अंत हो चुका है और जो द्वंद्व के मोह से युक्त हो गये हैं वे अटल व्रत वाले मुझे भजते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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