- महाभारत वनपर्व के 'इंद्रलोकाभिगमनपर्व' के अंतर्गत अध्याय 46 में उर्वशी का कामपीड़ित होकर अर्जुन के पास जाना और उनके अस्वीकार करने पर उन्हें शाप देकर लौट आने का वर्णन है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है[1]-
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर कृतकृत्य हुए गन्धर्वराज चित्रसेन को विदा करके पवित्र मुस्कान वाली उर्वशी ने अर्जुन से मिलने के लिये उत्सुक हो स्नान किया। धनंजय के रूप-सौन्द्रर्य से प्रभावित उसका हृदय कामदेव के बाणों द्वारा अत्यन्त घायल हो चुका था। वह मदनाग्नि से दग्ध हो रही थी। स्नान के पश्चात् उसने चमकीले और मनोभिराम आभूषण धारण किये। सुगन्धित दिव्य पुष्पों के हारों से अपने को अलंकृत किया। फिर उसने मन ही मन संकल्प किया-दिव्य बिछौनों से सजी हुई एक सुन्दर विशाल शय्या बिछी हुई है। उसका हृदय सुन्दर तथा प्रियतम के चिन्तन में एकाग्र था। उसके मन की भावना द्वारा ही यह देखा कि कुन्तीकुमार अर्जुन उसके पास आ गये हैं और वह उनके साथ रमण कर रही हैं। संध्या को चन्द्रोदय होने पर जब चारों ओर चांदनी छिटक गयी, उस समय विशाल नितम्बों वाली अप्सरा अपने भवन से निकलकर अर्जुन के निवास स्थान की ओर चली। उसके कोमल-घुंघराले और लम्बे केशों का समूह वेणी के रूप में आबद्ध था। उनमें कुमुदपुष्पों के गुच्छे लगे हुए थे। इस प्रकार सुशोभित वह ललना अर्जुन के गृह की ओर बढ़ी जा रही थी। भौंद्दों की भंगिमा, वार्तालाप की महिमाा, उज्ज्वल कांति और सौम्यभाव से सम्पन्न अपने मनोहर सुखचन्द्र द्वारा वह चन्द्रमा को चुनौती सी देती हुई इन्द्रभवन के पथ पर चल रही थी। चलते समय सुन्दर हारों से विभूषित उर्वशी के उठे हुए स्तन जोर-जोर से हिल रहे थे। उन पर दिव्य अंड़गार अत्यन्त मनोहर थे। वे दिव्य चन्द्रन से चर्चित हो रहे थे। सुन्दर महीन वस्त्रों से आच्छादित उसका जघनप्रदेश अनिन्द्य सौन्दर्य से सुशोभित हो रहा था। वह कामदेव का उज्ज्वल मंदिर जान पड़ता था। नाभि के नीचे के भाग में पर्वत के समान विशाल नितम्ब ऊंचा और स्थूल प्रतीत होता था। कटि में बंधी हुई करघनी की लडि़यां उस जघनप्रदेश को सुशोभित कर रही थी। वह मनोहर अंग (जघन) देवलोक वासी महर्षियों के भी चित को क्षुब्ध कर देने वाला था। उनके दोनों चरणों के गुल्फ (टखने) मांस से छिपे हुए थे। उसके विस्तृत तलवे और अंगुलियां लाल रंग की थीं। वे दोनों पैर कछुए की पीठ के समान ऊंचे होने के साथ ही घुंघुरूओं के चिह्र से सुशोभित थे। वह अल्प सुरापान से, संतोष से, काम से और नाना प्रकार की विलासिताओं से युक्त होने के कारण अत्यन्त दर्शनीय हो रही थीं। जाती हुई उस पिलासिनी अप्सरा की आकृति अनेक आश्रयों से भरे हुए स्वर्गलोक में भी सिद्ध, चारण और गन्धर्वों के लिये देखने के ही योग्य हो रही थी। अत्यन्त महीन मेघक समान श्याम रंग की सुन्दर ओढ़नी ओढ़े उर्वशी आकाश में बादलों से ढकी हुई चन्द्रलेखा-सी चली जा रही थी। मन और वायु समान तीव्र वेग से चलने वाली वह पवित्र मुस्कान से सुशोभित अप्सरा क्षणभर में पाण्डुकुमार अर्जुन के महल में आ पहुँची। नरश्रेष्ठ जनमेजय महल के द्वार पर पहुँचकर वह ठहर गयी। उस समय द्वारपालों ने अर्जुन को उसके आगमन की सूचना दी। तब सुन्दर नेत्रों वाली उर्वशी रात्रि में अर्जुन के अत्यन्त मनोहर तथा उज्ज्वल भवन में उपस्थित हुई राजन अर्जुन सशंक हृदय से उसके सामने गये। उर्वशी को आयी देख अर्जुन के नेत्र लज्जा से मुंद गये। उस समय उन्होंने उसके चरणों में प्रणाम करके उसका गुरुजनोचित सत्कार किया।
अर्जुन कहते है- देवि! श्रेष्ठ अप्सराओं में भी तुम्हारा सबसे ऊंचा स्थान है। मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर कर प्रणाम करता हूँ। बताओ, मेरे लिये क्या आज्ञा है ? मैं तुम्हारा सेवक हूँ और तुम्हारी आज्ञा का पालन करने के लिये उपस्थित हूँ।
वैशम्पायनजी कहते हैं- अर्जुन की यह बात सुनकर उर्वशी के होश-हवास गुम हो गये। उस समय उसने गन्धर्वराज चित्रसेन की कहीं हुई सारी बातें कह सुनायी।
उर्वशी ने कहा-पुरुषोत्तम! चित्रसेन ने मुझे जैसा संदेश दिया है और उसके अनुसार जिस उद्देश्य को लेकर में यहाँ आयी हूं, वह सब मैं तुम्हें बता रही हूँ। देवराज इन्द्र के इस मनोरम निवास स्थान में तुम्हारे शुभागमन के उपलक्ष्य में एक महान् उत्सव मनाया गया। वह उत्सव स्वर्गलोक का सबसे बड़ा उत्सव था। उसमें रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार और वसुगण-सब का एक ओर से समागम हुआ था। नरश्रेष्ठ! महर्षि समुदाया, राजर्षिप्रवर, सिद्ध, चारण, यक्ष तथा बड़े-बड़े नाग-ये सभी अपने पद सम्मान और प्रभाव के अनुसार योग्य आसनों पर बैठे थे। इन सबके शरीर अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी थे और वे समस्त देवता अपनी अद्भुत समृद्धि से प्रकाशित हो रहे थे। विशाल नेत्रों वाले इन्द्रकुमार! उस समय गन्धवों द्वारा अनेक वाणीएं बजायी जा रही थी। दिव्य मनोरम संगीत छिड़ा हुआ था और सभी प्रमुख अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। कुरुकुलनन्दन पार्थ! उस समय तुम मेरी ओर निर्निमेष नयनों से निहार रहे थे। देवसभा में जब उस महोत्सव की समाप्ति हुई, तब तुम्हारे पिता की आज्ञा लेकर सब देवता अपने-अपने भवन को चले गये। शत्रुदमन! इसी प्रकार आपके पिता से विदा लेकर सभी प्रमुख अप्सराएं तथा दूसरी साधारण अप्सराएं भी अपने अपने घर को चली गयीं। कमलनयन! तदनन्तर देवराज इन्द्र का संदेश लेकर गन्धर्वप्रवर चित्रसेन मेरे पास आये और इस प्रकार बोले-‘वरवर्णिनि! देवेश्वर इन्द्र ने तुम्हारे लिये एक संदेश देकर मुझे भेजा है। तुम उसे सुनकर महेन्द्र का, मेरा तथा मुझसे अपना भी प्रिय कार्य करो। ‘सुश्रोणि! जो संग्राम में इन्द्र के समान पराक्रमी और उदारता आदि गुणों से सदा सम्पन्न हैं, उन कुन्तीनन्दन अर्जुन की सेवा तुम स्वीकार करो।’ इस प्रकार चित्रसेन ने मुझसे कहा था। अनघ! शत्रुदमन! तदनन्तर चित्रसेन और तुम्हारे पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके मैं तुम्हारी सेवा के लिये तुम्हारे पास आयी हूँ। तुम्हारे गुणों ने मेरे चित्त को अपनी ओर खींच लिया है। मैं कामदेव के वश में हो गयी हूँ। वीर! मेरे हृदय में भी चिरकाल से यह मनोरथ चला आ रहा था।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! स्वर्गलोक में उर्वशी की यह बात सुनकर अर्जुन अत्यन्त लज्जा से गड़ गये और हाथों से दोनों कान मूंद कर बोले- ‘सौभाग्यशालिनि! भाविनि! तुम जैसी बात कह रही हो, उसे सुनना भी मेरे लिये बड़े दुख की बात है। वरानने! निश्चय ही तुम मेरी दृष्टि में गुरुपत्नियों के समान पूजनीय हो। ‘कल्याणि! मेरे लिये जैसा महाभागा कुन्ती ओर इन्द्राणि शची हैं, वैसी ही तुम भी हो। इस विषय में कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।[2]‘शुभे! पवित्र मुस्कान वाली उर्वशी! मैंने जो उस समय सभा में तुम्हारी ओर एकटक दृष्टि से देखा था, उसका एक विशेष कारण था, उसे सत्य बताता हूँ सुनो। ‘यह आनंदमयी उर्वशी की पूरूवंश की जननी है, ऐसा समझकर मेरे नेत्र खिल उठे और इस पूज्य भाव को लेकर ही मैंने तुम्हें वहाँ देखा था। कल्याणमयी अप्सरा! तुम मेरे विषय में कोई अन्यथा भाव मन में न लाओ। तुम मेरे वंश की वृद्धि करने वाली हो, अतः गुरु से भी अधिक गौरवशालिनी हो’।
उर्वशी कहती है- वीर देवराजनन्दन! हम सब अप्सराएं स्वर्गवासियों के लिये अनावृत हैं- हमारा किसी के साथ कोई पर्दा नहीं है। अतः तुम मुझे गुरुजन के स्थान पर नियुक्त न करो। पूरूवंश के कितने ही पोते नाती तपस्या करके यहाँ आते हैं और वे हम सब अप्सराओं के साथ रमण करते हैं। इसमें उनका कोई अपराध नहीं समझा जाता। मानद! मुझ पर प्रसन्न होओ। मैं कामवेदना पीडित हूं, मेरा त्याग न करो। मैं तुम्हारी भक्त हूँ और मदनाग्नि से दग्ध हो रही हूं; अतः मुझे अंगीकार करो।
अर्जुन कहते है -वरारोहे! अनिन्दित! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूं, मेरे उस सत्य वचन को सुनो। ये दिशा, विदिशा तथा उनकी अधिष्ठात्री देवियां भी सुन लें। अनघे! मेरी दृष्टि में कुन्ती, माद्री और शची का जो स्थान है, वही तुम्हारा भी है। तुम पुरुष वंश की जननी होने के कारण आज मेरे लिये परम गुरुस्वरूप हो। वरवर्णिनि! मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर तुम्हारी शरण में आया हूँ। तुम लौट जाओ। मेरी दृष्टि तुम माता के समान पूजनीया हो और तुम्हें पुत्र के समान मानकर मेरी रक्षा करनी चाहिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! कुन्तीकुमार अर्जुन के ऐसा कहने पर उर्वशी क्रोध से व्याकुल हो उठी। उसका शरीर कांपने लगा और भौहें टेढ़ी हो गयीं। उसने अर्जुन को शाप देते हुए कहा।
उर्वशी कहती है- अर्जुन! तुम्हारे पिता इन्द्र के कहने से मैं स्वयं तुम्हारे धर पर आयी और कामबाण से घायल हो रही हूं, फिर भी तुम मेरा आदर नहीं करते। अतः तुम्हें स्त्रियों के बीच में सम्मानरहित होकर नर्तक बनकर रहना पड़ेगा। तुम नपुसंक कहलाओगे और तुम्हारा सारा आचार व्यवहार हिजड़ों के ही समान होगा। फड़कते हुए आठों से इस प्रकार शाप देकर उर्वशी लंबी सांसें खींचती हुई पुनः शीघ्र ही अपने घर को लौट गयी।
तदनन्तर शत्रुदमन पाण्डुकुमार अर्जुन बड़ी उतावली के साथ चित्रसेन के समीप गये तथा रात में उर्वशी के साथ जो घटना जिस प्रकार घटित हुई, वह सब उन्होंने उस समय चित्रसेन को ज्यों का त्यों कह सुनायी। साथ ही उसके शाप देने की बात भी उन्होंने बार-बार दुहरायी। चित्रसेन ने भी सारी घटना देवराज इन्द्र से निवेदन की। तब इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन को बुलाकर एकान्त में कल्याणमय वचनों द्वारा सान्त्वना देते हुए मुसकराकर उनसे कहा-‘तात! तुम सत्पुरुषों के शिरोमणि हो, तुम-जैसे पुत्र को पाकर कुन्ती वास्तव में श्रेष्ठ पुत्रवाली है। ‘महाबाहो! तुमने अपने धैर्य (इन्द्रियसंयम) के द्वारा ऋषियों को भी पराजित कर दिया है। मानद! उर्वशी ने तुम्हें शाप दिया है, वह तुम्हारे अभीष्ट अर्थ का साधक होगा।[3] अनघ! तुम्हें भूतल पर तेरहवें वर्ष में अज्ञात वास करना है। वीर! उर्वशी के दिये हुए शाप को तुम उसी वर्ष में पूर्ण कर दोगे। ‘नर्तक वेष और नपुंसक भाव से एक वर्ष तक इच्छानुसार विचरण करके तुम फिर अपना पुरुषत्व प्राप्त कर लोगे’। इन्द्र के ऐसा कहने पर शत्रु वीरों का संहार करने वाले अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर तो उन्हें शाप की चिंता छूट गयी। पाण्डुपुत्र धनंजय महायशस्वी गन्धर्व चित्रसेन के साथ स्वर्गलोक में सुखपूर्वक रहने लगे। जो मनुष्य पाण्डुनन्दन अर्जुन के इस चरित्र को प्रतिदिन सुनता है, उसके मन में पापपूर्ण विषय भोगों की इच्छा नहीं होती। देवराज इन्द्र के पुत्र अर्जुन के इस अत्यन्त दुष्कर पवित्र चरित्र को सुनकर मद, दम्भ तथा विषयासक्ति आदि दोषों से रहित श्रेष्ठ मानव स्वर्गलोक में जाकर वहाँ सूखपूर्वक निवास करते हैं।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 46 श्लोक 1-18
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 46 श्लोक 19-38
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 46 श्लोक 39-56
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 46 श्लोक 57-63
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| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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