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अहा! उधर देखो, वह है तपन तनया का मञ्जुल प्रवाह। बह रहा मानस-गंगा का शान्त स्रोत। सामने अवस्थित हैं गिरिराज गोवर्धन और अन्य पर्वत मालाएँ। ये रहे ऊपर, सामने, पीछे, दक्षिण वाम पाश्व में उड़ते, बैठे, कलरव करते हुए विहंगम-कुल तथा सर्वत्र कानन में स्वच्छन्द विचरण करते हुए पशु समूह। ओह! इन सरिता, सर, गिरि, खग-मृग- सब पर ही तो तुम्हारी प्रतिदिन सकरुण दृष्टि पड़ती है। कितने सौभाग्यशाली हैं ये! अहो! भाग्य देखो इस श्याम वर्णा गोपी नाम की लता का! कहाँ तो तुम्हारा यह सुविस्तीर्ण वक्षःस्थल वैकुण्ठ वासिनी लक्ष्मी के लिये भी स्पृहणीय है तथा उसी पर पुष्पमाल्य के साथ ग्रथित होकर ये लताएँ भी झूल रहीं हैं! दादा! स्वयं देख लो! तुम्हारे इस अप्रतिम कृपा-प्रसाद का दान पाकर ये सब आज कितने धन्य-धन्य हो रहे हैं।’
- धन्येमय धरणी तृणवीरुधस्त्वत्पादस्पृशों दुमलता: करजाभिमृष्टा:।
- नद्योऽद्रय: खगमृगा: सदयावलोकैर्गोप्योऽम्तरेण भुजयोपरि यत्स्पृहा: श्री:।[1]
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