कविता भाटिया (वार्ता | योगदान) |
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सब कुछ जलमय है। नहीं, नहीं, यहाँ भी एक और [[ब्रह्माण्ड]] है। यह अण्डच्छिद्र है। प्रवेश करके देखूँ? हानि ही क्या है। छिद्र के अन्तराल में ऐसी दिव्य सृष्टि! यह स्थान कौन-सा है? ये तो इसी ब्रह्माण्ड के शिरोदेश में अवस्थित लोक हैं। कालमान से एक [[ब्रह्मा]] की [[आयु]] पूर्ण हो चुकी, पर मैं तो अनवरत इन लोकों में ही घूम रहा हूँ। यह एक पुनः अण्डच्छिद्र आया! नारायण! नारायण!! नारायण!!! में इस छिद्र में प्रवेश कर रहा हूँ। छिद्र को पारकर इस दूसरे छोर से मैं बाहर निकल आया। अरे! यह अगाध अनन्त अपरिसीम जलराशि और इस [[जल]] में संतरण करती हुई कोटि-कोटि अण्डराशि! | सब कुछ जलमय है। नहीं, नहीं, यहाँ भी एक और [[ब्रह्माण्ड]] है। यह अण्डच्छिद्र है। प्रवेश करके देखूँ? हानि ही क्या है। छिद्र के अन्तराल में ऐसी दिव्य सृष्टि! यह स्थान कौन-सा है? ये तो इसी ब्रह्माण्ड के शिरोदेश में अवस्थित लोक हैं। कालमान से एक [[ब्रह्मा]] की [[आयु]] पूर्ण हो चुकी, पर मैं तो अनवरत इन लोकों में ही घूम रहा हूँ। यह एक पुनः अण्डच्छिद्र आया! नारायण! नारायण!! नारायण!!! में इस छिद्र में प्रवेश कर रहा हूँ। छिद्र को पारकर इस दूसरे छोर से मैं बाहर निकल आया। अरे! यह अगाध अनन्त अपरिसीम जलराशि और इस [[जल]] में संतरण करती हुई कोटि-कोटि अण्डराशि! | ||
− | जय हो प्रभो! जय हो!! आज मुझे विरजा नदी के दर्शन हुए। ओह! विरजा-तीर की कैसी अनुपम शोभा है। कहीं दिव्य पद्मराग तो कहीं दिव्य इन्द्र नीलमणि, कहीं दिव्य मरकत और कहीं दिव्य स्यमन्तक मणि, कहीं दिव्य रुचक तो कहीं दिव्य कौस्तुभमणि-इन सबके स्तूप लगे हैं। [[कृष्ण]], श्वेत, हरित एवं रक्तवर्ण विविध दिव्यातिदिव्य रत्नसमूहों से परिशोभित, मुक्ता-माणिक्य-स्पर्श मणितखचित, शुद्ध सुविस्तीर्ण परम मनोहर इस सरित्तट के दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया! अच्छा, मैं तो विरजा पारकर शतश्रृंग समन्वित गिरिराज | + | जय हो प्रभो! जय हो!! आज मुझे विरजा नदी के दर्शन हुए। ओह! विरजा-तीर की कैसी अनुपम शोभा है। कहीं दिव्य पद्मराग तो कहीं दिव्य इन्द्र नीलमणि, कहीं दिव्य मरकत और कहीं दिव्य स्यमन्तक मणि, कहीं दिव्य रुचक तो कहीं दिव्य कौस्तुभमणि-इन सबके स्तूप लगे हैं। [[कृष्ण]], श्वेत, हरित एवं रक्तवर्ण विविध दिव्यातिदिव्य रत्नसमूहों से परिशोभित, मुक्ता-माणिक्य-स्पर्श मणितखचित, शुद्ध सुविस्तीर्ण परम मनोहर इस सरित्तट के दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया! अच्छा, मैं तो विरजा पारकर शतश्रृंग समन्वित गिरिराज गोवर्धन के परिसर में आ पहुँचा हूँ। यह है पारिजात वन श्रेणी! यह है [[कल्प]] तरुओं की पंक्ति! यह है विचरणशील कामधेनु समूह! गिरिराज! मैं तुम्हें प्रणाम कर रहा हूँ। |
[[वृन्दावन]] आ गया है। नव पल्लवों से परिशोभित, चन्दन-मन्दार-चम्पक आदि पुष्पों के पराग से सुवासित, सुमधुर भ्रमर-रव से गुंजि यह [[वृन्दावन]] का वन कितना सुन्दर है। दिव्य-फलसमन्वित आमग्र, नारंग, पनस, ताल, नारिकेल, जम्बू, बदरी, खर्जूर, गुवाक, आम्रातक, जम्बीर, कदली, श्रीफल एवं दाडिम वृक्षों की पंक्तियाँ कितनी सुन्दर हैं! इन विशाल प्रियाल, साल, अश्वत्थ, निम्ब, शाल्मली, तिन्तिड़ी तरुवरों की कैसी सघन शीतल छया है! मल्ल्किा, मालती, कुन्द, केतकी, माधवी यूथिका का कितना मनोहर सुवास है! इस वृन्दावन को निहारकर मेरे नेत्र शीतल हो गये। यह लो मेरे सामने कालिन्दी कलकल ध्वनि करती हुई प्रवाहित हो रही है। जय हो ! जय हो!! | [[वृन्दावन]] आ गया है। नव पल्लवों से परिशोभित, चन्दन-मन्दार-चम्पक आदि पुष्पों के पराग से सुवासित, सुमधुर भ्रमर-रव से गुंजि यह [[वृन्दावन]] का वन कितना सुन्दर है। दिव्य-फलसमन्वित आमग्र, नारंग, पनस, ताल, नारिकेल, जम्बू, बदरी, खर्जूर, गुवाक, आम्रातक, जम्बीर, कदली, श्रीफल एवं दाडिम वृक्षों की पंक्तियाँ कितनी सुन्दर हैं! इन विशाल प्रियाल, साल, अश्वत्थ, निम्ब, शाल्मली, तिन्तिड़ी तरुवरों की कैसी सघन शीतल छया है! मल्ल्किा, मालती, कुन्द, केतकी, माधवी यूथिका का कितना मनोहर सुवास है! इस वृन्दावन को निहारकर मेरे नेत्र शीतल हो गये। यह लो मेरे सामने कालिन्दी कलकल ध्वनि करती हुई प्रवाहित हो रही है। जय हो ! जय हो!! |
01:15, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
16. दुर्वासा का मोह-भंग
सब कुछ जलमय है। नहीं, नहीं, यहाँ भी एक और ब्रह्माण्ड है। यह अण्डच्छिद्र है। प्रवेश करके देखूँ? हानि ही क्या है। छिद्र के अन्तराल में ऐसी दिव्य सृष्टि! यह स्थान कौन-सा है? ये तो इसी ब्रह्माण्ड के शिरोदेश में अवस्थित लोक हैं। कालमान से एक ब्रह्मा की आयु पूर्ण हो चुकी, पर मैं तो अनवरत इन लोकों में ही घूम रहा हूँ। यह एक पुनः अण्डच्छिद्र आया! नारायण! नारायण!! नारायण!!! में इस छिद्र में प्रवेश कर रहा हूँ। छिद्र को पारकर इस दूसरे छोर से मैं बाहर निकल आया। अरे! यह अगाध अनन्त अपरिसीम जलराशि और इस जल में संतरण करती हुई कोटि-कोटि अण्डराशि! जय हो प्रभो! जय हो!! आज मुझे विरजा नदी के दर्शन हुए। ओह! विरजा-तीर की कैसी अनुपम शोभा है। कहीं दिव्य पद्मराग तो कहीं दिव्य इन्द्र नीलमणि, कहीं दिव्य मरकत और कहीं दिव्य स्यमन्तक मणि, कहीं दिव्य रुचक तो कहीं दिव्य कौस्तुभमणि-इन सबके स्तूप लगे हैं। कृष्ण, श्वेत, हरित एवं रक्तवर्ण विविध दिव्यातिदिव्य रत्नसमूहों से परिशोभित, मुक्ता-माणिक्य-स्पर्श मणितखचित, शुद्ध सुविस्तीर्ण परम मनोहर इस सरित्तट के दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया! अच्छा, मैं तो विरजा पारकर शतश्रृंग समन्वित गिरिराज गोवर्धन के परिसर में आ पहुँचा हूँ। यह है पारिजात वन श्रेणी! यह है कल्प तरुओं की पंक्ति! यह है विचरणशील कामधेनु समूह! गिरिराज! मैं तुम्हें प्रणाम कर रहा हूँ। वृन्दावन आ गया है। नव पल्लवों से परिशोभित, चन्दन-मन्दार-चम्पक आदि पुष्पों के पराग से सुवासित, सुमधुर भ्रमर-रव से गुंजि यह वृन्दावन का वन कितना सुन्दर है। दिव्य-फलसमन्वित आमग्र, नारंग, पनस, ताल, नारिकेल, जम्बू, बदरी, खर्जूर, गुवाक, आम्रातक, जम्बीर, कदली, श्रीफल एवं दाडिम वृक्षों की पंक्तियाँ कितनी सुन्दर हैं! इन विशाल प्रियाल, साल, अश्वत्थ, निम्ब, शाल्मली, तिन्तिड़ी तरुवरों की कैसी सघन शीतल छया है! मल्ल्किा, मालती, कुन्द, केतकी, माधवी यूथिका का कितना मनोहर सुवास है! इस वृन्दावन को निहारकर मेरे नेत्र शीतल हो गये। यह लो मेरे सामने कालिन्दी कलकल ध्वनि करती हुई प्रवाहित हो रही है। जय हो ! जय हो!! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
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