श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
58. एक वर्ष के व्यवधान के बाद श्रीकृष्ण का पुनः ब्रह्मा जी के द्वारा अपहृत गोप बालकों एवं गोवत्सों के साथ व्रज में लौटना और बालकों का अपनी माताओं से अघासुर के वध का वृत्तान्त इस रूप में कहना मानो वह घटना उसी दिन घटी हो; व्रजगोपियों तथा व्रज की गायों के स्नेह का अपने बालकों एवं बछड़ों से हटकर पुनः पूर्ववत श्रीकृष्ण में ही केन्द्रित हो जाना
सर्वज्ञ शिरोमणि प्रभु की वह असमर्थता एवं शिशुओं का योगीन्द्र-मुनीन्द्र कणों के लिये निर्विकल्प समाधि में भी प्राप्त न होने वाले स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को ढूँढकर बाहर लाते समय का वह उल्लास कितना आश्चर्यजनक है। और जिस समय नीलसुन्दर रवि नन्दिनी से संगमित किसी क्षुद्र स्त्रोत पर अथवा गिरिराज से प्रसरित हुई किसी निर्झर की एक छोटी धारा पर सेतु की रचना करते और उस सेतु पर श्री राघवेन्द्र की लंका विजय-लीला का अभिनय करने लगते, उस समय जो भी उस क्रीड़ा का दर्शन करता, उसके नेत्र प्रेमावेश से बहने लगते, शरीर अवश हो जाता। व्रजरानी, व्रजेश भी देखने जाते और देखकर स्तब्ध रह जाते। तथा फिर भावावेश शिथिल होने पर श्रीकृष्णचन्द्र के कपोलों पर चुम्पन अंकित करते हुए पूछते- ‘नीलमणि! तू रघुकुल चन्द्र की लीलाओं का इतना सुन्दर अनुकरण कैसे सीख गया? बता तो सही, मेरे लाल।’ श्रीकृष्णचन्द्र उत्तर में केवल हँस देते। इसके अतिरिक्त जिस समय वे वानरों का अनुकरण करते हुए तरु शाखाओं पर कूदने लगते, उस समय की झाँकी व्रजपुर के वृद्ध, वयस्क, शान्त, गम्भीर गोपों तक को चञ्चल बना देती। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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