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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
56. ब्रह्मा जी के द्वारा व्रजवासियों के भाग्य की सराहना
और यह भी सम्भव है, उपर्युक्त सत्य की छाया स्मृतिपथ में वर्तमान रहने पर भी प्रेमपरवश हुए पितामह के आकुल प्राण अभिलाषा की लहरों पर- व्रजपुरवासियों से सम्बद्ध हो जाने की लालसा के प्रबल प्रवाह पर बहते जा रहे हैं। उन प्राणों में स्पन्दन हो रहा है- ‘इस चिन्मय व्रजपुर समाज से हम प्राकृत इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवताओं का साक्षात सम्बन्ध तो होने से रहा। किन्तु इनके भी इन्द्रिय वर्ग देखने में तो यहाँ जैसे ही हैं; आकृति, बाह्यसंस्थान, संचरण प्रक्रिया में तो साम्य है ही; नयन, नासा आदिनामों की समता तो है ही। बस, बस, इतना ही हमारे लिये पर्याप्त है; किसी भी प्रकार से सादृश्य- लेशगन्ध की भावना करके गौरवान्वित होने का आधार तो प्राप्त हो गया।’ इस प्रकार पितामह इस आवेश में ही कहने लग जाते हैं- ‘हे अच्युत! इन व्रजपुरवासियों के अनिर्वचनीय परम सौभाग्य की बात तो अलग रही- मन, बुद्धि, अहंकार, कर्ण, त्वक, चक्षु, रसना, नासिका, वाक, हस्त, पद-इन एकादश इन्द्रियों के अधिष्ठातृ- देवतास्वरूप महादेव[1] मैं (ब्रह्मा), चन्द्र, दिक वायु, सूर्य, प्रचेता, अश्विनी, बहि, इन्द्र, उपेन्द्र- हम एकादश व्यक्ति भी धन्य हैं; अतिशय भाग्यशाली हैं हम सब भी नाथ! देखो, इन व्रजपुर-वासियों की इन्द्रियों को हम सबने पान पात्र (प्याला) बनाया है। इन पात्रों में तुम्हारे चरणसरोज का मधुर मकरन्दरस नित्य पूरित होता रहता है। यह रस-सुधा से भी अतिशय सुमधुर एवं आसव से भी अत्यधिक मादक है- इसे पी लेने के अनन्तर उन्यत्र कहीं रसानुभूति नहीं होती, अन्य सब कुछ की सर्वथा विस्मृति हो जाती है। ऐसा मधुमय एवं उन्मादी रस है यह! और उसे ही हम सब पान करते रहते हैं, प्रभो! इन व्रजवासियों का मन तुम्हारे साथ अपने यथायोग्य सम्बन्ध का मनन करता है। इनकी बुद्धि तुम्हारी सेवा के लिये तुम्हारे साथ विविध क्रीड़ा कर तुम्हें सुख पहुँचाने के लिये अध्यवसाय करती है। इनका अहंकार तुम्हारे रुचिकर कार्यों के संकल्प में ही संलग्न रहता है। इनके कर्णपुटों में तुम्हारी मधुस्यन्दिनी वाणी एवं वंशीरव ही पूरित रहता है। इनकी त्वचा में यथायोग्य भाव एवं अधिकार के अनुरूप तुम्हारे श्रीअंगों का स्पर्श ही समाया रहता है। इनके दृग तुम्हारे अनिन्द्य-सुन्दर रूप में ही उलझे रहते हैं। इनकी रसना तुम्हारे अधरामृत से सिक्त प्रसाद का ही रस लेती है। इनके नासारन्ध्रों में तुम्हारे श्रीअंगों का सौरभ ही परिव्याप्त रहता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महादेव अहंकार के अधिष्ठाता हैं, ब्रह्मा बुद्धि के एवं चन्द्रमा मन के। इन तीनों के अतिरिक्त शेष को उपर्युक्त क्रम से समझना चाहिये। महादेव जी का नाम पितामह ने सर्वप्रथम इसलिये लिया है कि अभी भी उनके मन में अपने किये हुए अपराध का पर्याप्त संकोच वर्तमान है। साथ ही ‘भक्त चूड़ामणि महादेव का नाम व्रजराज कुमार को उल्लसित कर देगा, द्रवित हो उठेंगे प्रभु और मुझ अपराधी के नाम का प्रथम उल्लेख शोभाजनक भी नहीं’- यह भावना भी काम कर रही है।
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