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ओह, अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, एक-से अनन्त व्रजपुर हैं, एक- से अनन्त उद्यान हैं, एक-से अनन्त उनके नीलसुन्दर तुम हो, एक-सी अनन्त यशोदाएँ अपने नीलसुन्दर का मुखविवर देख रही हैं, मुख में मृत्तिका कण ढूँढ़ रही हैं! तथा ठीक भीतर की भाँति ही तुम्हारे उदर के बाहर भी वैसा ही जगत प्रकाशित है, उसमें भी तुम हो ही, जननी यशोदा भी वैसे ही मिट्टी का चिह्न तुम्हारे मुख में खोज ही रही हैं- भला, यह रहस्यमयी घटना तुम्हारी अचिन्त्य महाशक्ति के वैभव के अतिरिक्त और है ही क्या, स्वामिन!-
- अत्रैव मायाधमनावतारे ह्यस्य प्रपंचस्य बहिः स्फुटस्य।
- कृत्स्त्रस्य चान्तर्जठरे जनन्या मायात्वमेव प्रकटीकृतं ते।।
- यस्य कुक्षाविदं सर्वं सात्मं भाति यथा तथा।
- तत्त्वय्यपीह तत् संर्व किमिदं मायया बिना।।[1]
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