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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
55. ब्रह्मा जी द्वारा की गयी स्तुति एवं प्रार्थना
उस समय भी प्रभु के चरण मेरे लिये सुखसेव्य न हो सके; किंतु आज किसी अनिर्वचनीय सौभाग्य से भक्त वत्सल प्रभु बाल गोपाल के चरण मेरे समक्ष हैं इस रूप में हैं कि मैं इन्हें यथेच्छ अपने हृदय पर धारण कर अपनी चिर लालसा को पूर्ण कर सकूँ। इस बार की लीला में बृहद्वन की वृन्दाकानन की धरा ने, धरा के वक्षःस्थल पर स्थित तरुगुल्म-लताओं ने इन बाल्यलीला बिहारी के अनावृत चरणों का स्पर्श पाया है। और तो क्या-कीट, पतंग, भृंगों ने भी उड़-उड़कर इन चरण सरोरुह का मधुर मनोहारी घ्राण प्राप्त किया है, स्पर्श-सुख से वे उन्मत्त हुए हैं। प्रभु मुझे भी इस बार वंचित नहीं ही रखेंगे। पर आह! मेरे लिये तो मर्यादा की रोक लगी है। जो मेरे जन्मदाता पिता हैं, जिनके नाभिपद्म से मेरा प्रादुर्भाव हुआ है, जो मेरे उपदेष्टा हैं, जिनके उपदिष्ट मन्त्र की मैं उपासना करता हूँ, जो मेरे स्वामी है, जिनके नियन्त्रण में ही विश्व का सृजन करता हूँ, उन्हें बालक कहकर सम्बोधन कैसे करूँ, इन पिता-गुरु स्वामी को पहले बालक बतलाकर फिर चरण-शरण दान की प्रार्थना कैसे करूँ? शिष्टमर्यादा के विपरीत मेरा यह आचरण कैसे क्षम्य होगा? साथ ही बाल-गोपाल की लीलामाधुरी के आस्वादन का लोभ परित्याग कर सकूँ, यह भी सम्भव नहीं। क्या करूँ? कैसे कहूँ प्रभु से.........................।’इस प्रकार-क्षण भी न लगा पितामह इतनी अधिक बात सोच गये। वे व्याकुल हो उठे। फिर तो श्रीकृष्णचन्द्र की कृपा शक्ति ने अपने-आप स्रष्टा की भावना को अक्षुण्ण रखते हुए ही बाल्यभाव के उपयुक्त शब्द योजना कर दी और चतुर्मुख के मुख से निकल पड़ा- ‘इन लघु कोमल पादपद्म वाले प्रभु के लिये प्रणाम है!’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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