श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
1. जन्म-महोत्सव
अब ब्राह्मण आ गये हैं। व्रजेश स्नान करके, अलंकृत होकर ब्राह्मणों को प्रणाम करते हैं। मातृ का पूजन, नान्दीमुख-श्राद्ध सम्पन्न करके ब्राह्मणों को साथ लिये हुए वे सूतिकागार में आते हैं। विधिवत् जातकर्म-संस्कार आरम्भ होता है। यह नित्य अजन्मा का जात कर्म है। जिनके एक-एक रोम कूप में अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड अवस्थित हैं, प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक-एक ब्रह्मा जिनके नियन्त्रण में सृजन का कार्य वहन करते हैं, आज उन्हीं का ब्रह्ममुखनिः- सृत वेद मन्त्रों से संस्कार हो रहा है। यह कैसी विडम्बना है! लीलाविहारिन्! तुम्हारी मुनि-मन-मोहनकारिणी लीला को धन्य है! अस्तु, ‘भूस्त्वयि’ इत्यादि मन्त्रों का पाठ करके शिशु के बिम्बविडम्बित अधरोष्ठ को किंचित् खोलकर सुवर्ण संयुक्त अनामिका अँगुली से धृत का एक कण चटाया गया। आयुष्य क्रिया करते समय ब्राह्मण देवता शिशु के दक्षिण कर्ण में ‘अग्निरायुष्मान्’ इत्यादि जपने के लिये मुखनिकट ले गये। उन्हें प्रतीत हुआ मानो यह कर्ण नहीं, किसी अनिर्वचनीय श्यामल तेजोलतिका का नवोन्मिषित पल्लव है। जपते समय ब्राह्मण सारे शरीर में कम्प होने लगा। ब्राह्मण आश्चर्य थे कि सारे अंग काँपने क्यों लगे, आज तक तो ऐसी घटना नहीं हुई! पश्चात् ‘दिवस्परि’ इत्यादि मन्त्र से बालक का स्पर्श किया गया। फिर भूमि अभिमन्त्रित की गयी। एक बार बालक का अंग पुनः पोंछ दिया गया। आगे की अन्य क्रियाएँ सम्पन्न हो गयीं। अन्त में शिशु के कुञ्चत केश कलापमण्डित मस्तक से सटाकर ‘आपो देवेषु’ इत्यादि मन्त्र से एक जल-पात्र सूतिका-पर्यंक के नीचे रखा गया। इस तरह जातकर्म-संस्कार सम्पन्न हुआ-
अब दाई नालछेदन करती है। किसकी नाल?
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10। 5। 2)
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