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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
50. ब्रह्मा जी के द्वारा पहले गोवत्सों का अपहरण और श्रीकृष्ण के उन्हें ढूँढ़ने निकलने पर गोपबालकों का भी अपसारणः श्रीकृष्ण की उन्हें ढूँढ़ निकालने में असमर्थता तथा अन्त में सर्वज्ञताशक्ति द्वारा सब कुछ जान लेना
पर वे वहाँ हों, तब तो मिलें। श्रीकृष्णचन्द्र अरण्य की परिक्रमा-सी करते हुए पुनः पुलिन पर ही आ पहुँचे। न तो वन में मिला एक भी गोवत्स और न भेंट हुई किसी एक भी सखा से और अब अंशुमाली का रथ भी पश्चिम गगन में अस्ताचल की ओर मुड़ चुका है! ‘क्या हुए मेरे गोवत्स? कहाँ गये मेरे सखा? हाय! मैं इनके बिना कैसे घर लौटूँगा?’- श्रीकष्णचन्द्र के नेत्रों में जल भर आया। बस, यहीं सीमा आ जाती है। त्रुटिमा. काल व्यतीत होने से पूर्व ही ऐश्वर्यसिन्धु लहराने लग जाता है। सर्वज्ञता ऊपर उठ आती है, बाल्यावेश को आत्मसात कर लेती है और फिर तो नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र अपने ‘विश्ववित’ स्वरूप में प्रतिष्ठित हो ही जाते हैं। अब उनके लिये कौन-सा रहस्य अज्ञात है? जगद्विधाता की सम्पूर्ण चेष्टाएँ, उनके सम्पूर्ण मनोभाव, अतीत, अनागत-विश्व का सूक्ष्मतम स्पन्दन तक नित्य- वर्तमान बनकर उनके सामने आ जाता है। गोवत्स गोपशिशु कहाँ हैं, कैसे, क्यों गये यह सब कुछ अनायास अकस्मात वे जान लेते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।13।17)
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