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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
50. ब्रह्मा जी के द्वारा पहले गोवत्सों का अपहरण और श्रीकृष्ण के उन्हें ढूँढ़ने निकलने पर गोपबालकों का भी अपसारणः श्रीकृष्ण की उन्हें ढूँढ़ निकालने में असमर्थता तथा अन्त में सर्वज्ञताशक्ति द्वारा सब कुछ जान लेना
श्रीकृष्णचन्द्र विचार करने लगे- ‘सम्भव है मुझसे परिहास करने के उद्देश्य शिशुओं ने सभी वस्तुएँ हटा दी हों, सबके चिह्न तक पोंछ डाले हों और यहीं छिप कर मेरी प्रतीक्षा कर रहे हों? यह विचार आते ही नीलसुन्दर ने अतिशय विनम्र शब्दों में सखाओं को पुकार-पुकारकर प्रार्थना आरम्भ की- ‘अरे भैयाओं! देखो तो सही, गोवत्सों को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मैं कितना श्रान्त हो गया हूँ; तुम सबको दया नहीं आती? अरे विशाल! मेरे पैरों में पीड़ा हो रही हैं, तू आकर दबा दे, भैया! भैया रे सुबल! देख, मेरे समस्त अंग प्रस्वेद से भर गये हैं, तू आकर अपनी चादर से पोंछ दे! अरे पयोद! चन्दन! कुन्द! देख, तुम सबों को विनोद हो रहा है और मेरा कण्ठ सूख रहा है! बहुत ही तीव्र प्यास लग रही है; आ जा, भैया! मुझे जल पिला दे, अब विलम्ब मत कर भैया रे मधुमंगल! पुष्पांक! हंस! तू रूठ गया क्या? नहीं भैया! अब मैं कभी अपराध नहीं करूँगा। तू जैसे कहेगा, वैसे ही करूँगा। आ जा।’ इस प्रकार करुणाभरी वाणी से नन्दनन्दन ने न जाने कितनों का आह्वान किया। पर सब व्यर्थ। श्रीकृष्णचन्द्र का यह विनम्र निवेदन पुलिन कण-कण में गूँज उठता है और पुनः नीरवता छा जाती। ‘कदाचित वे सब मुझे ही ढूँढ़ने के उद्देश्य से वन में चले गये हों तो क्या पता? क्योंकि मेरे लौटने में पर्याप्त विलम्ब जो हो चुका है।’- अब ऐसे विचार श्रीकृष्णचन्द्र के मन में आने लगे और उन्होंने पुनः स्वयं भी वन में जाकर उन सबको ढँढ़ने का निश्चय किया। प्रस्वेद कण भाल पर, कपोलों पर झल-झल करने लगे हैं! झुर-झुर करता हुआ मन्द मन्थर पवन आया है नीलसुन्दर को अपनी सेवा समर्पित करने, प्रस्वेद पोंछ देने। पर वे सेवा स्वीकार कर सकें, इतना समय उनके पास कहाँ? वे तो अब और तनिक भी विलम्ब न कर पग डंडी के पथ से वन में ही प्रविष्ट हो गये। पहले की भाँति ही चारों और कुंजों में, गिरि परिसर में, गह्वर में वे अपने सखाओं को, साथ ही गोवत्सों को दोनों को ही पुकार-पुकार कर ढूँढ़ने लग गये।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।13।16)
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