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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
47. अघासुर का उद्धार
स्नेह एवं आर्तिमिश्रित स्वर में श्रीकृष्णचन्द्र पुकार उठे-
‘भैयाओं हो! मत घुसो, मत घुसो; यह सर्प है, सर्प है!’ किंतु इतने में तो शिशु अघ के उदर में प्रविष्ट हो चुके।
और प्रवेश करते ही विष की ज्वाला से उनकी समस्त इन्द्रियवृत्ति विलुप्त हो गयी, श्रीकृष्णचन्द्र में आकर एकाकार हो गयी। इस अवस्था में उनकी पुकार कोई सुने भी तो कौन सुने।-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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