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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
44. वकासुर-संहार की कथा सुनकर यशोदा के मन में चिन्ता; व्रज में सर्वत्र श्रीकृष्ण लीलागान
इस प्रकार गोपीमुख निस्सृत लीलागान अनन्त धाराएँ दसों दिशाओं को परिव्याप्त कर देती हैं। गोपी के कर्णपुट इनसे पूरित होने लगते हैं। इनका उन्मादी प्रभाव वयोवृद्ध गोपों तक को चंचल कर देता है। गोष्ठ जाकर गो दोहन, गो संलालन आदि में लगे हुए गोप-समाज मन और तो क्या, भुवन भास्कर को अर्घ्य समर्पित करते हुए परम निष्ठावान स्वयं व्रजराज का मन भी इस प्रवाह में बरबस बह चलता है। गोपों के द्वारा गो संलालन, गो दोहन तो होते हैं, पर होते हैं यन्त्रवत और मन तन्मय होने लगता है उन्हीं के मुख से स्वतः प्रस्फुरित लीलागान में। व्रजेन्द्र को भी अर्घ्य की, अर्घ्य के मन्त्र की सर्वथा विस्मृति है; केवल क्रियामात्र सम्पन्न हो रही है। चित्त वृत्ति तो कब की विलीन हो चुकी है पुरसुन्दरियों के कल कण्ठनिर्गत श्रीकृष्णचन्द्रगान में। स्वयं व्रजेश की वाणी वैसे ही किसी गीत की आवृत्ति करने लगती है। जहाँ कहीं जब कभी भी कोई गोपसमुदाय एकत्र होता है, वहाँ उस समय चर्चा आरम्भ होती है श्रीकृष्णचरित्र ही, तथा आरम्भ होने के अनन्तर उसका विराम कहाँ? क्योंकि इस समुदाय का प्रत्येक सदस्य अपने हृदेश में किसी एक परम सरस स्त्रोत का ही अनुसरण करते हुए लौटता है। ऊपर से भले प्रतीत हो कि चर्चा स्थगित हो गयी, पर यह तो मन्दाकिनी की वह सरस धारा-जैसी है, जो सघन वन की ओट में विलुप्त हो जाती है और फिर आगे जाकर अनुकूल धरातल पर पुनः व्यक्त हो जाती है। गोप भावशाबल्यवश एक बार मौन हो जाते हैं, चल पड़ते हैं अपनी गन्तव्य दिशा की ओर। पर कुछ दूर अग्रसर होने पर पुनः उद्दीपन की कोई न कोई वस्तु स्पर्श करती ही है और पुनः श्रीकृष्णचन्द्र के चरित्रों का चित्रण चल पड़ता है। भला, ऐसे लीलारसमत्त आभीर समाज को भव वेदना स्पर्श करे तो कैसे करे? वहाँ उनकी चित्तभूमि में अन्य भावना, अन्य अनुभूति के लिये स्थान जो नहीं रहा! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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