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विचार क्रिया में परिणत होने चला। श्रीकृष्णचन्द्र अपने दोनों घुटने एवं दोनों हाथ पृथ्वी पर टेक देते हैं। शिशु अपनी फेंटे कस लेते हैं और जो-जो उनमें अधिक बलवान हैं, वे ऊखल को पकड़कर ठेलने का प्रयत्न करते हैं। बाल्यलीलाविहारी श्रीकृष्णचन्द्र भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर उसे अपनी ओर खींच रहे हैं। उनके अरुण अधरों पर, सुचिक्कण अरुणाभ कपोलों पर इसके सूचक चिह्न स्पष्ट अंकित हो जाते हैं। ऊखल भी धीरे-धीरे सरकने लगता है। लगभग अठारह मास पूर्व इसी प्रांगण में श्रीकृष्णचन्द्र ने रिंगणलीला आरम्भ की थी, घुटुरुआ चलते हुए वे खेलते थे, श्रीअंगों की शोभा उस दिन भी ऐसी-सी ही थी-
- बंधुक-सुमन-अरुन पद-पंकज, अंकुस, प्रमुख चिह्न बनि आए।
- नू पुर-कलरव मनु हंसनि सुत रचे नीड़, दै बाँह बसाए।।
- कटि किंकिन-बर हार ग्रीव, दर, रुचिर बाहु भूषन पहिराए।
- उर श्रीबच्छ, मनोहर हरि-नख, हेम-मध्य मनि-गन बहु लाए।।
- सुभग चिबुक, द्विजअ-धर-नासिका, स्रवन-कपोल मोहि सुठि भाए।
- भ्रव सुंदर, करुना-रस-पूरन लोचन मनहुँ जुगल जल-जाए।।
- भाल बिसाल ललित लटकन मुनि, बाल-दसा के चिकुर सुहाए।
- मानौ गुरु-सनि-कुज आगें करि, ससिहिं मिलन तम के गन आए।।
- उपमा एक अभूत भई तब, जब जननी पट पीत उढ़ाए।
- नील जलद पर उडुगन निरखत, छबि-समूह लै-लै मनु छाए।
- सूरदास सो क्यौं कर बरनै, जो छबि निगम नेति करि गाए।।
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