विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
30. यमलार्जुन के अतीत जन्म की कथा; यमलार्जुन-उद्धार
इसी समय अवसर देखकर श्रीकृष्णचन्द्र की सर्वज्ञता शक्ति पुनः एक बार सँभलकर अर्जुन-वृक्षों की स्मृति दिलाने के उद्देश्य से सेवा में उपस्थित हुई। परंतु अपने प्रभु स्वामी की मुख मुद्रा, गोपशिशुओं की वह अनुपम प्रेमिल चेष्टाएँ देखकर उसे यह साहस नहीं हुआ कि प्रकट होकर कार्य कर सके। बाल्यलीला बिहारी श्रीकृष्णचन्द्र का वह मधुमय बाल्यावेश भंग हो, जननी के बन्धन से मुक्ति पाने की लालसा में, मधुरातिमधुर वात्सल्य-सुधा-रसपान में पुनः ऐश्वर्य की किरकिरी मिल जाय-यह तो सेवा नहीं, अपराध होता। इसीलिये श्रीकृष्णचन्द्र की शिशूपम मुग्धता के आवरण में छिपी रहकर ही, लीलाशक्ति के अचंल की ओट से ही सर्वज्ञता ने सेवा आरम्भ की। पुनः वे यमलार्जुनवृक्ष श्रीकृष्णचन्द्र के नेत्रों के सामने आ गये और वे सोचने लगे-‘मेरी मुक्ति का उपाय तो सरल है.......।’ उनके मुख पर उल्लास भर जाता है और वे गोपशिशुओं से चटपट कह उठते हैं-‘भैयाओ! मेरे हाथ पहुँचते नहीं और तुम सबों से गाँठ खुली नहीं। अब एक बड़ा ही सुन्दर उपाय है। देखो, यह ऊखल बड़ा भारी है। अकेला तो इसे मैं खींच नहीं सकूँगा। मैं भी इसे खींचता हूँ और तुम सब मिलकर धक्का देकर इसे पीछे से लुढ़काते चलो। फिर देखो, चलें वहाँ, उन यमलार्जुन वृक्षों की ओर। देखो, दीखते हैं न? उन वृक्षों के मध्य में मेरे समा जाने भर को पर्याप्त स्थान है। वहाँ जाकर मैं तो उसके भीतर से निकल जाऊँगा। पर यह ऊखल उसके भीतर जा नहीं सकेगा। साथ ही मैं इसे टेढ़ा भी कर दूँगा। फिर तो यह समा नहीं सकेगा, इस पार ही अटक जायगा। तब फिर उस पार से मैं डोरी को झटके दूँगा। जहाँ मैंने पूरे बल से डोरी खीची कि डोरी टूटी। बस, काम हो गया।’-युक्ति सुनते ही, गोपशिशुओं के हर्ष का पार नहीं रहता। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज