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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
28. श्रीकृष्ण की ऊखल बंधन लीला
ज्यों ही पट्टडोरियों का वह ढेर समाप्त हुआ, वैसे ही आभीर-सुन्दरियों के मुख पर से हास भी अन्तर्हित हो जाता है; हास के स्थान पर भय मिश्रित प्रगाढ़ विस्मय लहरें नाचने लगती हैं। व्रजेश्वरी का कौतुककोप (कोप का स्वाँग), उससे अद्भुत नीलमणि के बन्धन का प्रयास उनके लिये विचित्र भीतिमूलक आश्चर्य का विषय बन जाता है। ओह! कनक-मेखला ज्यों-की-त्यों बँधी हैं; न तो वह टूटी, न उसमें कभी किंचिन्मात्र भी स्पन्दन ही हुआ होता कैसे, श्रीकृष्णचन्द्र के उदर में यदि थोड़ी भी वृद्धि हुई होती तब तो मेखला टूटती या कम्पित होती! उदर तो ज्यों-का-त्यों है। किंतु उसी मेखला से समन्वित उदर के निम्नतल में, मेखला की समानान्तर रेखा के रूप में लपेटते समय वह सुबृहत लंबी डोरी दो अंगुल छोटी पड़ जाती है, डोरी के दोनों छोर मिल नहीं पाते; डोरी का वह विस्तार बीच में न जाने कहाँ विलुप्त हो जाता है। गणना करते समय उस सुचिक्कण डोरी में लगी अगिणत सुन्दर गाँठें भी उदर के अग्रभाग की ओर देख पड़ती हैं; किंतु जब कभी यशोदारानी की ओर मुख करके गाँठ देने के लिये दोनों छोरों को मिलाने चलती हैं, तब वही दो अंगुल का व्यवधान मिलता हैॅ। उदर आगे गाँठों से भरा पट्ठडोरी स्तूप पड़ा है, पर प्रत्येक बार ही डोरी के छोनों छोर मिलाने में व्रजेश्वरी सर्वथा असफल हो रही हैं। यह वास्तव में है कैसी, किसकी लीला! सबने अपने-अपने घर की समस्त डोरियाँ ला दीं, घर में एक भी डोरी नहीं बची; फिर भी वह अल्प परिधि का कटिदेश वेष्टित न हो सका यह अघट-घटन कैसे सम्भव हो रहा है....................! गोप-सुन्दरियों के नेत्र निष्पन्द हो गये, उन्हें गृह पुत्र परिजन की विस्मृति हो गयी, मन-बुद्धि में अवशिष्ट अन्य विषयों के समस्त संस्कार भी विलुप्त हो गये। उनकी विचित्र ही दशा हो गयी। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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