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- तामात्तयष्टिं प्रसमीक्ष्य सत्वरस्ततोऽवरुह्यापससार भीतवत्।
- गोप्यन्वधावन्न यमाप योगिनां क्षमं प्रवेष्टुं तपसेरितं मनः।।[1]
- करि ग्यान-जोग-समाधि धारत ध्यान आवत हैं नहीं।
- मन बुद्धि चित्त उपाव कौं करि, दौरि पावत हैं नहीं।।
- जिहि कौं गह्यौ जसुधा चहैं बसुधा, परी मति मोह में।
- नहिं जानि पूरनब्रह्म, पुत्रहि मानि कै, भरि कोह में।।
जो हो, श्रीकृष्णचन्द्र ने सोचा कि आज जननी के कोप से त्राण पाने का एक ही उपाय है- पुरद्धार के बाहर सभाभवन में मैं चला जाऊँ। वहाँ बाबा होंगे, गोप होंगे, वहाँ चले जाने पर मैया तो वहाँ जा नहीं सकेगी; क्योंकि अन्तःपुर से बाहर, गोपों की सभा में तो यह मुझे लेकर कभी नहीं जातीं; फिर आज कैसे जायगी। यह निश्चय करके दौड़ते हुए श्रीकृष्णचन्द्र तोरणद्वार की दिशा में ही मुड़ गये-
- अथ पुरद्वारं न मातुर्गमनद्वारमिति मत्वा
- पलायनग्रहिलस्तद्दिशमेव जग्राह।[2]
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