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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
26. स्वयं यशोदा के द्वारा दधिमन्थन तथा श्रीकृष्ण का जननी को रोककर उनका स्तन्य पान करना
व्रजेश्वरी हाथों से तो अपने प्राणाराम नीलमणि के लिये नवनीत प्रस्तुत कर रही हैं, मुख से नीलमणि की रसमयी बाललीला का गान कर रही हैं तथा उनकी चित्तभूमि पर इन विविध लीलाओं के अनुरूप क्षण-क्षण में नव-नव वेश से विभूषित होते हुए नीलमणि नृत्य कर रहे हैं। इस प्रकार वे श्रीकृष्णचन्द्र में कायमनोवाक्य से तन्मय हो रही हैं। इस तन्मयता ने क्रमशः जननी की यह स्मृति भी प्रायः हर ली कि नीलमणि अभी तो पर्यंक पर सो रहे हैं, उनकी निद्रा में व्याघात न हो। अब तो उनकी भावना में नीलमणि रह-रहकर उनके सामने आ जाते हैं। इसीलिये मुक्तकण्ठ से वे गाने लगती हैं-
‘मेरे लाल! तू तो व्रजराजकुल का तिलक है। अरे! तूने एक से एक बढ़कर परम मनोहर, सुन्दर, पवित्र लीलाएँ यहाँ की हैं। ओह! उन्हें निहार-निहारकर व्रजवासी सुख में डूबे हुए हैं। लीलासुख देकर तू सदा व्रजवासियों का आनन्दवर्द्धन करता है।’ जननी के हृत्पट पर जब कभी जन्म महोत्सव की झाँकी झलक उठती है, उस समय वे अपने नीलमणि का एक वैसा ही नाम रखकर पुकार उठती हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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