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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
24. श्रीकृष्ण की दूसरी वर्षगाँठ, श्रीकृष्ण के द्वारा मोतियों की खेती
व्रजेश्वरी तो स्तम्भित खड़ी रहती हैं। पर यह समाचार व्रजपुर में फैलते देर नहीं लगती। दल-की-दल गोपसुन्दरियाँ दौड पड़ीं। जो जिस अवस्था में थी, वैसे ही चली आयी। उन्हें अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हो रहा है। मत हो, पर श्रीकृष्णचन्द्र की उमंग तो उनमें समा नहीं रही है। नाच-नाचकर वे अपनी अंजलि को मोतियों से पूर्ण कर लेते हैं तथा निकट आयी हुई व्रजतरुणी के अंचल में उँडेल देते हैं। साढ़े छः पहर पूर्व जिन व्रजतरुणियों ने श्रीकृष्ण के स्पृष्ट मुक्ता के एक दाने की चाह की थी, उनके अंचल व्रजेन्द्रनन्दन ने राशि-राशि मुक्ताओं से भर दिये। अगणित गोपों ने, व्रजेश्वर ने भी इस मुक्तातरु के दर्शन किये। व्रजराज ने तो यह सोचा- वह बनजारा नरलोक का प्राणी नहीं था, कोई सिद्धलोक पुरुष इस वेष में आये थे, अथवा मेरे इष्टदेव श्रीनारायण की ही यह माया है। नारायण की स्मृति से उनका हृदय भर आया। व्रजेश्वरी ने भी अपने मन का समाधान ऐसे ही किया। वह मुक्तातरु तो अदृश्य हो गया पर मुक्ता के दाने ज्यों-के-ज्यों बने रहे। यह सत्य है या स्वप्न-इसकी परीक्षा के लिये उन व्रजतरुणियों ने उन दानों को मुक्ताहार में पिरोया। हार को वे सदा हृदय पर धारण किये रहती हैं। हार के प्रत्येक मुक्ता से उन्हें श्रीकृष्ण के परम सुखमय स्पर्श का अनुभव होता है, प्रत्येक में उन्हें श्रीकृष्णचन्द्र की छबि अंकित प्रतीत होती है। यह मुक्ताहार उनका जीवनहार बन गया। अवश्य ही इस लीला का वास्तविक मर्म किसी ने नहीं जाना-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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