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अपने द्वार पर स्वर्ण पुतली-सी खड़ी वह उस ओर देखती रहती है, जिधर श्रीकृष्णचन्द्र गये हैं। जब मध्यान्ह होने लगता है, तब कहीं वह अन्तर्गृह में प्रवेश करती है। नवनीत की रिक्त मटकी देखकर सोचती है कि माखन भरे पात्र को मैं सम्भवतः कहीं अन्यत्र रख आयी हूँ, इधर-उधर उसे ढूँढ़ती फिरती है। इतने में दीख पड़ता-घर के जितने स्वर्ण, रौप्य, कांस्य, मृण्मय पात्र थे, वे सभी छिन्न-भिन्न, अस्त-व्यस्त हो रहे हैं। श्यामसुन्दर की चंचल चेष्टाओं से वह परिचित अवश्य है, पर अब उसके पास मन जो नहीं रहा। निर्णय कौन करे? मन के स्थान पर तो श्यामसुन्दर का रस भरा है-
- देखै जाइ मटुकिया रीती, मैं राख्यौ कहुँ हेरि।
- चकित भई ग्वालिनि मन अपनें, ढूँढ़ति घर फिरि फेरि।।
- देखति पुनि-पुनि घर के बासन, मन हरि लियौ गोपाल।
- सूरदास रस भरी ग्वालिनी जानै हरि कौ ख्याल।।
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