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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
21. द्वितीय माखन चोरी-लीला
गोपसुन्दरी मनोरथ-पूर्ति के महान आनन्द से विहृल हो गयी। उसे ऐसा प्रतीत होने लगा, मानों वह स्वप्न देख रही है। किंतु सहसा उसके स्मृति पट पर किसी ने तूलिका फेर दी, वह यह बात सर्वथा भूल गयी कि उसने कभी यह इच्छा की थी कि नीलमणि मेरे घर आकर मेरा माखन आरोगें। अतीत के उत्कण्ठामय संस्मरण सर्वथा विलुप्त हो गये। अब उसे इतना ही भान है कि सखाओं को साथ लिये नीलमणि मेरे गृहतोरण के पास खड़े हैं, उनकी मनोहर मुखारविन्द माखन से सना है। सरलता से वह पूछ बैठी-
उत्तर में श्यामसुन्दर कुछ कहने लगे। पर उन्होंने क्या कहा, ग्वालिन सुनकर भी कुछ सुन न सकी। उनके सलोने माखन-सने मुख की मन्द हँसी में उसकी चेतना सहसा विलुप्त होने लगी। इतने में श्यामसुन्दर ने अपने सखा एक गोपशिशु की भुजा पकड़ ली तथा वे व्रज की गली में चल पड़े। ग्वालिन निर्निमेष नयनों से उनकी ओर देख रही है। अन्धकार होता तो बात थी। दिन के उज्ज्वल प्रकाश में हरि-श्रीकृष्णचन्द्र गोपसुन्दरी का मन हरणकर-चित्त चुराकर चले गये और वह ठगी-सी खड़ी रह गयी-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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