श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
19. हाऊ-लीला
अस्तु, श्रीकृष्णचन्द्र अपने अम्बुजकोष-सदृश मुख को खोलकर धीरे-धीरे माखनरोटी मुख के भीतर ले जाते हैं तथा उल्लासभरी दृष्टि से जननी की ओर देखने लगते हैं। यह शोभा भी अनुपम ही है। एक बार पुनः बाग्वादिनी (सरस्वती) का प्रयास व्यर्थ हो जाता है वे समुचित तुलना ढूँढ़ न सकीं, पर कुछ भी कहे बिना रहा नहीं गया, सर्वथा मोटी उपमा ही उनके मुख से बरबस निकल गयी-
जो हो, रोटी का अष्टमांशमात्र भोजन कर अवशिष्ट में से कुछ अंश तो श्रीकृष्णचन्द्र ने वहीं फेंक दिया तथा कुछ हाथ में लिये बलराम को पुकारते हुए रोहिणी मैया के पास दौड़ चले। द्वार पर व्रजेश्वर प्रतीक्षा कर रहे थे-मेरा लाल माखन-रोटी खाकर अब आता ही होगा। प्रतीक्षा पूरी हुई। श्रीकृष्णचन्द्र आये तथा बाबा की धोती पकड़कर कहने लगे-‘बाबा! तुमने तो अभी कलेवा ही नहीं किया और मैं दो बार माखन खा आया। क्या तुम्हें भूख नहीं लगती?’ उनके यह कहते-कहते ही दोनों का आनन्द उमड़ा, दो धाराएँ दो ओर से बह चलीं-व्रजेश के नेत्रों से अश्रुजल के रूप में, श्रीकृष्ण के श्यामल अंगों से नृत्य के रूप में। अपने नेत्र पोंछते हुए बाबा देख रहे हैं तथा श्रीकृष्णचन्द्र नृत्य कर रहे हैं। नग्न नील अंगों से ज्योति झर रही है, बन्धूकवर्ण अधरों पर हास्य है, जननी के द्वारा स्नेह से सँवारी हुई अपनी चोटी पर हाथ रखकर उल्लास से भरे, समस्त अंगों को नचाते हुए वे नाच रहे हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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