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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
16. दुर्वासा का मोह-भंग
श्रीदाम, सुबल, बसन्त, कडार, अर्जुन आदि समवयस्क सखाओं को साथ लिये कभी बहुत दूर-यमुनापुलिन तक चले जाते, वहाँ शुभ्र सैकत पर लोटते रहते। कभी सघन श्याम तमाल वृक्षों से आवृत कालिन्दी-उपवन में विचरते रहते, कदम्बनिर्मित कुंजों से परिशोभित उपवन में विविध क्रीड़ा करते रहते-
इसी प्रकार आज भी गोपबालकों को साथ लिये कोलाहल करते हुए वे कालिन्दी परिसर में अवस्थित एक अत्यन्त सुन्दर सैकतमयी भूमि पर चले आये हैं, अंजलि में शुभ्र वालुका भरकर परस्पर एक दूसरे पर बिखेरते हुए दौड़ रहे हैं। अभी आधी घड़ी पूर्वतक जननी यशोदा साथ थीं, पर अचानक व्रजेश ने किसी अत्यन्त आवश्यक कार्य से उन्हें बुलाया और वे चली गयीं। नन्दरानी ने बहुत चाहा कि समझा-बुझाकर राम-श्याम को भी साथ लेते चलें; किंतु श्रीकृष्ण बालू पर पैर पटक-पटककर रोने लगे, किसी प्रकार भी खेल छोड़कर घर जाने के लिये सहमत नहीं हुए। आखिर परिचारिकाओं पर ही रक्षा का भार सौंपकर जननी को जाना पड़ा। शीघ्रातिशीघ्र लौट आने का विचार करके जननी अकेली ही चली तो गयीं; किंतु उनका मन इस संकेतपुलिन पर ही, अपने नीलमणि में ही उलझा रह गया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गर्ग संहिता)
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